संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
इसके बाद भी अगर अपनी कहानियों के बारे में कुछ कहना बाकी रह
जाता है तो मैं इतना ही कहूंगा कि जो लोग जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गये हैं वही लोग
मेरी कहानियों में आगे आ गये हैं। मैंने अपने-आपको हमेशा इन्हीं पीछे छूट गये,
पराजित लोगों के साथ
पाया है इसलिए मेरी कहानियां भी इन्हीं हारे हुए लोगों की तकलीफ, गुस्से, कुंठा, विक्षोभ, चीख-पुकार और विद्रोह
के धागे से बुनी गयी हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नातों, नौकरी-समाज यानी कि जीवन की समग्र जद्दोहद और प्रत्येक मोर्चें
पर यदि मैं अपने-आपको दूसरों की आंख से देखता हूं तो पाता हूं कि आज के इस उपयोगितावादी
दृष्टिकोण वाले सामाज में मैं नितांत अनुपयोगी और अप्रासंगिक सिद्ध हो चुका हूं। मेरी
तमाम कोशिशें फिजूल और प्रतिबद्धताएं संदिग्ध ठहरायी जा चुकी हैं। एक बड़े संसार में
एक छोटे आदमी के अकेले पड़ जाने की यह विराट पीड़ा है जिसे अपनी आंख से देखने और महसूस
करने पर मैं इस मुल्क के एक बड़े वर्ग-समूह की छाती में कलपता पाता हूं। यह देखना ही
मेरे तईं दृष्टि है और इस देखे हुए को पूरी ताकत, पूरी शिद्दत और पूरी ईमानदारी से लोगों को
दिखाना ही मेरे तईं प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता की इससे इतर परिभाषा देनेवाले लोगों
के लिए यह फोटोग्रेफिक यथार्थवाद हो सकता है और राजनीति के जॉर्गन्स साहित्य पर लादते
हुए वे इस कोशिश को भी संदिग्ध और अप्रासंगिक ठहरा सकते हैं। ठहरायें, उन्हें इसका हक है।
मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि मैं उन लोगों के बीच खड़ा हूं जिनके हक छीन लिये गये
हैं। लेकिन इससे यह समझने की भूल न की जाये कि मेरी दुनिया के लोग हतवीर्यों का झुंड
मात्र हैं और वे कभी भी कोई फैसला नहीं देंगे। वे फैसला देंगे और एक ही बार देंगे।
यही मेरा आशावाद है--जीवन में भी और जीवन से प्रभावित होने तथा जीवन को प्रभावित करनेवाले
साहित्य में भी। न तो जीवन ही व्यक्तिगत इच्छाओं या सनकों से संचालित होता है और न
ही साहित्य को किसिम-किसिम की प्रतिबद्धताओं या सुविधावादी सिद्धांतों के चौखटे में
जड़ा जा सकता है। न तो जिंदगी की लड़ाई एक ही मोर्चे पर लड़ी जाती है और न साहित्य के
सरोकार ही नाक की सीध वाली संकरी गली में दौड़ते हैं। और इसीलिए तथा अनायास भी मैं जिंदगी
को दसों उंगलियों से पकड़ पाने की छटपटाहट में डूबा लेखक हूं। जिस जिंदगी को मैं दसों
उंगलियों से पकड़ पाने के लिए बेचैन हूं वह बिना शक मेरी मध्यवर्गीय दुनिया की जिंदगी
है और इसीलिए अनेक आलोचकों के लिए वह सीमित भी है। अपनी इस सीमा को स्वीकार करने के
बावजूद मुझे लगता है कि इस तथाकथित छोटे संसार को भी यदि कोई रचनाकार उसके समूचे अंतर्विरोध
के साथ पकड़ सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि है।
क्रमशः
स्वलेखन पर यह तुम्हारी बेबाक टिप्पणी है, जो सीधे सहजता से पहुँचती है दिल तक...!
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