Wednesday, February 26, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 12


संक्षिप्त आत्मरचना
12
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

दिल्ली आने के शुरूआती समय और बाद में जो मित्र मेरे जीवन में आये उनकी संख्या बहुत अधिक है। लेकिन जिनकी वजह से मेरे इमोशनल और क्रिएटिव संसार में एक समृद्धि आयी उनमें राजेन्द्र यादव, हरिप्रकाश त्यागी, हरिनारायण, रामकुमार कृषक, वीरेंद्र जैन, महेश दर्पण, डॉ. जगदीश चंद्रिकेश आदि प्रमुख हैं। मेरे जीवन में नंदन जी का योगदान भी महत्वपूर्ण है। इसलिए नहीं कि उन्होंने मुझे नौकरी दी। उनका महत्व इसलिए ज्यादा है क्योंकि उन्होंने अपने एकांत और भावुक क्षणों में अपना दुख, अपना संघर्ष, अपना सुख, अपना स्वाभिमान, अपनी मानवीयता, अपना जज्बा मेरे साथ शेयरकिया--इसके बावजूद कि दफ्तर में वह मेरे बॉस ही नहीं, उम्र में भी, लगभग मेरे पिता के बराबर थे। उनके साथ काम करने के कुछ मौलिक किस्म के दफ्तरी तनाव भी हालांकि साथ-साथ चले, लेकिन उन दबावों ने मुझे पत्रकारिता के प्रति चौकस, सतर्क और सक्रिय भी किये रखा। और राजेन्द्र यादव? यादव जी के साथ अपने रिश्ते को व्याख्यायित करना बहुत कठिन है। यह शख्स मेरे जीवन की एक असंभव और इसीलिए ऐंद्रजालिक उपस्थिति है।  सन् 1978 की एक सुबह मैं दिल्ली में उतरा था। बाईस वर्ष की नन्हीं और कस्बाई उम्र में। भौंचक्का और परेशान। लेकिन लेखक तब तक बाकायदा बन चुका था। तीन कहानियां छप चुकी थीं। उनमें से भी दो कमलेश्वर द्वारा संपादित बड़ी पत्रिका सारिकामें। 13 जून 1978 को सहसा प्रेम विवाह कर लेने के बाद मैं राजकमल प्रकाशन में नौकरी करने दिल्ली आया था। छात्र राजनीति और अपनी पत्नी को देहरादून में ही छोड़ कर। तब राजकमल प्रकाशन की मालकिन शीला संधु हुआ करती थीं जिनका हिंदी लेखकों के बीच भारी दबदबा था। उन दिनों के तमाम बड़े लेखक मेरी मेज के सामने से गुजरते हुए ही शीला जी के केबिन मंे प्रवेश करते थे। उन लेखकों में राजेन्द्र यादव नहीं थे। तभी सोच लिया था कि एक दिन राजेन्द्र यादव की जिंदगी में अपने को दर्ज करना है। मेरी याद्दाश्त बहुत धोखेबाज किस्म की है। तो भी इतना तय है कि राजकमल में नौकरी करने के दौरान तो यादव जी से मुलाकात नहीं हो पायी थी। 31 मार्च 1981को मैंने राजकमल से त्यागपत्र दिया और 2 अप्रैल 1981को  राधाकृृष्ण प्रकाशन ज्वॉइन किया। राधाकृष्ण के नीचे एक घर आगे यादव जी के अक्षर प्रकाशन का दफ्तर था। सन् 1980 में मेरा पहला कहानी संग्रह लोग/हाशिए परप्रकाशन संस्थान से छपा था जिसका कवर हरिप्रकाश त्यागी को बनाना था लेकिन बनाया अवधेश कुमार ने। किताब छपने पर मैंने कॉफी हाउस जा कर हरिप्रकाश को भेंट दी तो उसने किताब दूर फेंक दी। लेकिन बाद में यही हरिप्रकाश मेरे खास दोस्तों में शुमार हुआ और उसी के साथ मैं पहली बार राजेन्द्र यादव जी से मिलने पहुंचा। 7 अगस्त 1982 को मैंने टाइम्स समूह की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमानज्वॉइन की और 10 दरियागंजका नागरिक  कहलाया। यहां हरिप्रकाश त्यागी विज्ञापन डिजाइन करने आता था और वापसी में मुझे अपने साथ स्कूटर पर टांग कर अपने घर ले जाता था। रास्ते में वाइन शॉप पर रुक कर वह व्हिस्की का एक हाफ खरीदता था जो उन दिनों 35 रुपए का मिलता था। यह हाफ हम उसके घर पहुंच कर निपटाया करते थे। एक दिन वह बोला, ‘चलो तुमको यादव जी से मिलवाते हैं और सन् 1982 की एक शाम मैं यादव जी से मुखातिब था। यह पटरंगपुर पुराण इसलिए कि यादव जी के इलाके में निरंतर बने रहने के बावजूद मुझे उन तक पहुंचने में चार साल लग गये। ऐसा था हमारे समय में लेखक का रुतबा और संसार। और यादव जी यकीनन एक रुतबे वाले लेखक थे। लेकिन आपको पता है, यादव जी को कौन सी बात बाकी रुतबेदार लेखकों से जुदा करती है? यादव जी एक ऐसे बड़े लेखक हैं जो दूसरे लेखकों को उनके अपने स्पेस में जीने की आजादी देते हैं। उनके संग साथ रहते रहकर आपको लगता ही नहीं  कि एक छोटा लेखक एक बड़े लेखक के दरबार में दुम हिला रहा है। शायद यही एक मात्र वजह है कि बाकी बड़े लेखकों की तुलना में राजेन्द्र यादव नामक बड़े लेखक के मित्रों की संख्या सबसे ज्यादा और कद्दावर है। उनके मित्रों में बीस से अस्सी वर्ष की उम्र के लेखक शामिल हैं। तो दिसंबर 1986 में चौथी दुनियाज्वॉइन करने तक दरियागंज और अंसारी रोड ही अपना चरागाह बना रहा। इन्हीं दिनों हंसका प्रकाशन हुआ और अपनी ऐतिहासिक प्रेम कहानी खुल जा सिमसिमकमलेश्वर द्वारा संपादित पत्रिका गंगामें छपी। यह कहानी पढ़ कर राजेन्द्रजी ने आग्रह करने पर अपनी एक टिप्पणी भेजी-तुम्हारी कहानी पढ़ने से मेरा एक बहुत बड़ा नुकसान हो गया। हर भूतपूर्व की तरह मैं भी संतुष्ट भाव से सोचे बैठा था कि अच्छी कहानियां तो हमने ही लिखी हैं या आगे लिखेंगे। बाद वाले तो बकवास कर रहे हैं। यह कहानी पढ़ी तो चौंका.... यह क्या ? कहूं कि एक अजीब आश्वस्ति का भाव जागा- कहानियां लिखी जा रही हैं, शायद अधिक विकसित बोध के साथ।एक लंबे पत्र का छोटा सा अंश है यह जो नौ नवंबर को लिखा गया था। इससे पहले 18 अगस्त 1985 को मैंने यादवजी का एक लंबा साक्षात्कार उनके तत्कालीन निवास 103 डीडीए फ्लैट्स हौज खास , नयी दिल्ली में लिया था जिसकी आगे चल कर बहुत चर्चा हुई थी। इसमें यादवजी ने कुछ बेहतरीन किस्म के उद्गार व्यक्त किए थे जो कालांतर में बड़े रचनात्मक, मार्गदर्शक और यादवजी के समय-समाज-साहित्य का प्रतिबिंब बन कर दर्ज हुए। मसलन-लेखक को सर्वोच्च मानने के पीछे एक बड़ा कारण तो यह है कि जो दूसरे नहीं कर रहे , वह मैं कर रहा हूं। लेखक बौद्धिक धरातल पर ही नहीं बल्कि एक व्यापक राष्टीªय-अंतरराष्टीªªय धरातल पर मूव करता है इसलिए उसमें विशिष्ट हो जाने का भाव बहुत स्वाभाविक है। उसमें यह भावना पैदा हो जानी भी स्वाभाविक है कि वह भाव और संवेदना की दुनिया में रहने वाला प्राणी है और इस दुनिया में एक अतिथि बन कर आया है। इसलिए अपने लिए वह एक विशेष तरह का व्यवहार भी चाहता है लेकिन वास्तविक जीवन में यह व्यवहार उसे मिलता नहीं है। नहीं मिलता है इसलिए कुंठा पैदा होती है। वह अपने को और विशिष्ट बनाता है और अपने आसपास की खाई को और चौड़ा करता जाता है। नतीजा यह होता है कि वह और और अकेला होता जाता है।
      हमारे बाद कोई त्रयी क्यों नही बन सकी? क्योंकि इतिहास में एक बार जो घटना हो गयी उसको उसी तरह से रिपीट करने की कोशिश होती है तो वह ट्रेजेडीबनती है। स्थितियों का कुछ इस तरह से संयोग होता है कि कुछ लोग आपस मंे ही जुड़ जाते हैं। हम लोगों  में (राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव ) शायद यह हुआ समान तरह के लगावों की वजह से। हम तीनों निम्न मध्य वर्ग से आये थे और हममें बहुत सी बातें समान थीं। मैं व्यक्तिगत रुप से महसूस करता हूं कि इस त्रयीने हम तीनों को सृजनशील बनाए रखा। आज हम सब जिस रचनात्मक माहौल के लिए तरसते हैं वह रचनात्मक माहौल हम तीनों एक दूसरे के लिए संभव बनाते थे। हम ने एक दूसरे की चुनौती में कहानियां लिखीं। यह उसका बहुत ही सकारात्मक बिंदु है।
      पत्नी को लेखिका नहीं होना चाहिए। जो पत्नी लेखिका नहीं होती उसे लगता है कि उसका पति कोई महान कार्य कर रहा है जिसके कारण वह बड़ी छूट देती है, बड़ा लिहाज करती है और पति की ओर विशेष ध्यान देती है लेकिन अगर पति और पत्नी दोनों लेखक हों तो पति चूंकि लेखन के महत्व को समझता है इसलिए वह पत्नी के लेखन की अनुकूल स्थितियां बनाने में लगा रहता है। नतीजे में होता यह है कि घर-गृृहस्थी बिगड़ने लगती है। एक ही प्रोफेशन के लोगों में हमेशा यह होता है कि एक आदमी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। होना तो वही चाहिए जो रेणु को मिला। रेणु की पत्नी नर्स थी और लेखक की पत्नी के लिए नर्स होना बहुत जरुरी है।
क्रमशः

1 comment:

  1. 'और लेखक की पत्नी के लिए नर्स होना बहुत जरुरी है...।‘ बहुत खूब...! प्रेरक प्रसंग... बहुत साफगोई से लिखा हुआ...! किन मोड़ों से गुज़री है ज़िन्दगी, अब साफ़ हो रहा है भाई...!

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