संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और नागार्जुन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। चारों का अपना-अपना
महत्व और आभा मंडल है, लेकिन बाबा नागार्जुन इस मायने में अद्वितीय हैं क्योंकि वे
अपने रहन-सहन और आचरण से भी सड़क पर खड़े फकीर जैसे नजर आते थे। वह मुझसे भी ज्यादा मेरी
पत्नी ललिता से स्नेह करते थे। ललिता भी उनकी कुछ ज्यादा ही देखभाल में जुटी रहती थी।
कभी उनका मुंह साफ करवा रही है, कभी उनका गमछा धो रही है, कभी उनके लिए चाय बना रही है तो कभी पकौड़ियां
तल रही है। कभी-कभी वह बाबा का हाथ पकड़ कर एकदम सुबह उनको पूरे सादतपुर का चक्कर भी
लगवा आती थी। कभी सुबह बाबा घर आते और आदेश देते ललिता पोहा बनाओ। बाबा सो जाते और
ललिता पोहा बना देती। बाबा उठते और कहते पोहा नहीं हलुआ खाने का मन है। ललिता फिर किचन
में चली जाती और इस प्रकार नाश्ते में पोहा तथा हलुआ दोनों बन जाते। एक बार ललिता के
कहने पर बाबा हमारे मुंबई स्थित घर पर भी रहने आए थे। तब पत्रकार मित्र अजय ब्रह्मात्मज
के एक फिल्म निर्देशक रिश्तेदार ने बाबा की एक दिन की दिनचर्या पर डाक्यूमेंट्री फिल्म
बनाई थी। फिल्म बनने के दौरान बाबा का बाल सुलभ उत्साह देखते बनता था। दरअसल बाबा के
भीतर एक अबोध बच्चा हमेशा मौजूद रहता था। यही कारण था कि उम्रदराज होने के बाद भी जीवन,
जगत और मनुष्य के कार्य
व्यापार को लेकर वह एक सहज जिज्ञासा से भरे रहते थे। दिल्ली में एक बार हैजा फैल गया
था तब मैंने बाबा की मशहूर कविता ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने‘ की तर्ज पर ‘हैजा उत्सव देखा हमने‘ शीर्षक से एक संपादकीय
‘चौथी दुनिया‘
में लिखा था। बाबा
कई दिनों तक उस संपादकीय को पढ़ कर मजा लेते रहे। वह जनकवि इसलिए नहीं हैं कि उनके सरोकार
जनपक्षीय हैं। वह अपने जीवन की एक-एक भंगिमा और सांस के साथ इस देश के सामान्य नागरिक
के संघर्षशील और बदहाल जीवन से बंधे हुए थे और उनका यह बंधना एकदम सहज था, खरा था।
क्रमशः
नागा बाबा का स्मरण... सौ फीसदी सच्ची तस्वीर उकेरी है तुमने...! मेरे घर में भी उनका निर्बाध प्रवेश था... मेरी सहधर्मिणी को किचन में जाकर खिचड़ी बनाने का आदेश स्वयं दे आते...! अद्भुत व्यक्तित्व... सरल, सज्जन, निरभिमानी...!! तुम्हारी इस क़िस्त से बाबा खूब याद आये...!
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