संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
मेरे जीवन में एक दुख
है। एक बार यादवजी एक साहित्यिक समारोह में मुंबई आए। जाहिर है उनके रहने ठहरने खाने
की उत्तम व्यवस्थाएं आयोजकों ने की हुई थीं। बाहर से जब कोई बड़ा लेखक मुंबई आता है
तो उसे नरीमन पॉइंट से अंधेरी के बीच स्थित किसी होटल में ठहराने का रिवाज है। विराट
और वैभवशाली हो जाने के बावजूद अंधेरी से आगे बढ़ने को ‘रिस्की‘ माना जाता है। मीरा रोड तो ‘रिस्क जोन‘
बोरीवली से भी दो स्टेशन
आगे है। तो यादवजी आए और ऐसा कैसे संभव कि मीरा रोड न आएं। वह आये। खाना खाया लेकिन
रात में ही निकल गये। उनके जाने के कुछ दिनों के बाद मैंने अपने घर में इंगलिश टॉयलेट
भी बनवाया लेकिन यादवजी उसके बाद मुंबई ही नहीं आए। अब तो मैं भी वह घर छोड़ कर नये
घर में आ गया हूं जहां फिर से इंगलिश टॉयलेट नहीं है। मैने बताया न कि मेरा राजेन्द्र
यादव से कोई स्वार्थी नाता नहीं है। इतने लंबे घनिष्ठ रिश्ते वाले समय में मेरी कुल
तीन कहानियां ‘हंस‘ में छपी हैं। मेरी किताबों पर कोई भी चर्चा ‘हंस‘ में बहुत गर्मजोशी से नहीं हुई है लेकिन इस
से क्या? मेरा नाता राजेन्द्र यादव से है, ‘हंस‘ से नहीं। और राजेन्द्र यादव का अर्थ मेरे आसमान में कोहेनूर
की तरह बेशकीमती तथा दुर्लभ है। और हरिप्रकाश त्यागी तो यारों का यार है ही। मैंने
और त्यागी ने रंगों और रेखाओं की दुनिया में ही नहीं रंगमंच और फिल्म संसार की बारीकियों,
महत्व और दूसरी कलाओं
के साथ उनके अंतःसंबंधों पर भी बहस की है। मेरी कितनी ही कहानियों पर उसकी और उसकी
कितनी ही कविताओं और कला-समीक्षाओं पर मेरी राय और सुझााव अंकित हैं। हम वर्षा और ठंड
को ठेंगा दिखाते हुए शराब पीने के लिए भी मिले और कला प्रदर्शनियों में भी पहुंचे।
हमने हुसैन, सूजा और खोसा पर भी बहस की और रजनीश तथा महेश योगी पर भी। हमने सेक्स पर भी बातें
कीं और स्त्रियों के ‘ईरोटिक ड्रीम्स‘ के मनोविज्ञान पर भी और जितना रचनात्मक काम करना चाहिए उतना न कर पाने की पीड़ा
से उदास भी हुए। हमने एक-दूसरे से प्यार भी किया और एक-दूसरे को गालियां भी दीं।
तो इस तरह मैं शराबी-कबाबी दोस्तों के साथ गुजरी आबाद-बरबाद
रातों, छात्रों की हड़तालों, मजदूरों के जुलूसों, बौद्धिकों के स्वप्नों, क्रांतिकारियों के
भाषणों, अभावों के दुखों, दुखों की भाषा और भाषा के आंदोलनों से होकर लेखन को छोड़ता क्रांति को अपनाता,
क्रांति को छोड़ता प्रेम
को पकड़ता, प्रेम से मुक्त होता शराब में डूबता, शराब से निकलता थियेटर में घुसता, थियेटर से भागता नौकरी को ढूंढ़ता,
नौकरी को छोड़ता शहरों
में भटकता, लोगों में जाता, लोगों से आता, हजार-हजार लगावों, परेशानियों और कुंठाओं में डूबता-उतराता हुआ अंततः राजधानी में
हूं--पांच कहानी-संग्रहों, दो उपन्यासों, दो नाटकों, एक इंटरव्यू की किताब और कुछेक समीक्षाओं की बहुत थोड़ी-सी पूंजी
के साथ, श्रीकांत वर्मा की तरह अपने से यह कहता हुआ --‘पूछती है सैयदा, इस जिंदगी का क्या किया?‘
क्रमशः
क़िस्त-१४ का समापन (अंतिम पारा) अप्रतिम है, इस पंक्ति के साथ--‘पूछती है सैयदा, इस जिंदगी का क्या किया?‘' तुम्हारी कलम तो खूब बोलती है....!
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