Saturday, February 1, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 9

संक्षिप्त आत्मरचना
9
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


साढ़े तीन सौ रुपये महीने से शुरू होकर सवा आठ सौ रुपये महीने तक पहुंची मेरी राजकमल की नौकरी के सवा तीन साल संघर्ष, यातना, कठोरतम परिश्रम और लेखकीय प्रतिकूलताओं के ठोस अंधेरे का एक ऐसा सफर है जो आज कल्पनातीत लगता है। राजकमल की नौकरी के अनुभवों को आधार बनाकर जब मैंने अपना लघु उपन्यास आदमीखोरलिखा और उसका धारावाहिक प्रकाशन रविवारसाप्ताहिक में शुरू हुआ, तो राजकमल की मैनेजिंग डायरेक्टर श्रीमती शीला संधु (जो मुझे बेटा कहकर संबोधित करती थीं) के सभी संवेगात्मक तंतु जैसे यकबयक सूख गये। यह बहुत स्वाभाविक भी था और इसे लेकर मेरे मन में कोई शिकवा भी नहीं है। लेकिन मेरी एक दिक्कत और कमाजेरी शुरू से रही है कि और चाहे कुछ हो, लेकिन अगर मेरी संवेदनात्मक दुनिया पर जरा भी प्रहार होता है, तो मैं समूचा का समूचा सिर्फ हृदय में बदल जाता हूं और विवेक उस क्षण विशेषमें मेरे यहां तत्काल अनुपस्थित हो जाता है। शाली जी ने तब एक ऐसा वाक्य कहा, जो उन्होंने न कहा होता तो शायद मैं आज भी अपने कई मित्रों की तरह राजकमल में ही नौकरी कर रहा होता और खुद को आज की अपेक्षा ज्यादा असंभव और अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों में घसीट रहा होता। आवेश में शीला जी केे मुंह से निकल पड़ा, ‘अगर तुम कहीं और होते तो किक आउटकर दिये जाते।मैं सन्न रह गया। जिस स्त्री ने मेरा दिल्ली में रहना संभव किया हुआ था, जिसने किराये का मकान न मिलने तक अपना गेस्ट हाउसमेरे लिए खोल दिया था और जो ललिता को बहूकहकर संबोधित करती थी, उसके इस रूप ने मेरे मन की कोमलतम दुनिया को सहसा ही एक भांय-भांय करते रेगिस्तान में बदल दिया। यह मेरी निष्ठा, प्रतिबद्धता और संवेदना का संपूर्ण अस्वीकार ही नहीं, मेरी श्रद्धा का तिरस्कार भी था। मैं तत्काल उनके केबिन से वापस लौटा, अपना इस्तीफा लिखा और उनके पास पहुंचवा दिया। यहां यह श्रेय उन्हें जरूर देना होगा कि इस्तीफे के बाद उन्होंने अपने शब्दों की भयावहता को रियलाइजभी किया और मुझे साग्रह और साधिकार रोकने की भी कोशिश की, लेकिन तब तक विवेक मुझे छोड़कर जा चुका था और मेरी भावनाओं की दुनिया तहस-नहस हो चुकी थी। मैंने राजकमल छोड़ दिया। यह 31 मार्च 1981 का दिन था और मैं दिल्ली में बेरोजगार था। तब हम दक्षिण दिल्ली के राजनगर इलाके में आठ बाई आठ फुट के एक तंग कमरे में रहते थे। हम यानी मैं, ललिता, मेरा बेटा आशू और ललिता के गर्भ में उपस्थित दूसरा बेटा। मैं दिन-भर यूं ही भटकता रहा और शाम को सीमापुरी के ठेके पर चला गया। वहां मैं रात के ग्यारह बजे तक शराब पीता रहा और इतना भावुक होने के लिए खुद को लगातार कोसता रहा। रात को बारह-साढे़ बारह बजे मैं घर में घुसा--टूटा, थका, क्षत-विक्षत और शराब के नशे से आक्रांत। वह रात मेरे जीवन की बहुत गलीज, नारकीय और भीतर तक हिला देने वाली रात है। मैंने ललिता को बताया कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। पहली बार वह डर गयी। असुरक्षा, अभाव और भटकाव का जो दर्द उसके सीने में उठा, उसने सहसा ही उसे एक आम भारतीय स्त्री में बदल दिया और वह मेरी उस भावुकता, जिसे वह प्यार करती थी, को कोसने लगी। बात बढ़ती गयी और एक-दूसरे के प्रति विरोध, अविश्वास और अवज्ञा का भाव भी उग्र होता गया। नतीजा संहार में निकला। आज भी मैं इस अपराधबोध से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया हूं कि उस रात मैं ललिता पर हाथ उठा बैठा था।

क्रमशः

1 comment:

  1. मैं सचमुच यह मानता हूँ कि राजकमल एक भयावह 'शोषण-संस्थान' था. वहाँ यह शोषण हर पायेदान पर था. मैं अपने हिंदी-प्रेम के कारण वहाँ गया था, लेकिन जल्दी ही मेरा भ्रम भी टूटा था. १९७९ में मैंने भी राजकमल छोड़ा था. यही हश्र महेश नारायण 'भारती भक्त', रामकुमार 'कृषक' और वीरेन्द्र जैन का भी हुआ था. जल्दी ही तुम भी वहाँ से छूट गए, भला हुआ. शीलाजी का तथाकथित 'पुत्र-प्रेम' मारक था, इसमें मुझे भी संदेह नहीं!...
    'मर्दखोर' तो सुना था, यह 'आदमीखोर' शब्द प्रभावित भी करता है और उत्कंठा भी बढ़ा रहा है; क्योकि इसमें राजकमल की गाथा है...! कैसे और कहाँ से मिलेगी तुम्हारी ये पुस्तक? पढ़ना चाहूंगा...! वीरेन्द्र की पुस्तक 'शब्द-वध' पढ़ चुका हूँ, जो प्रकाशन संस्थानो और राजकमल के आसपास घूमती है. 'आदमीखोर' भी पढ़ लूँ तो कोरम पूरा हो जाए...!

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