संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
उद्धरण और भी हैं।
यहां यह बताना उद्देश्य है कि दिल्ली में जो एक बात बड़े व्यापक रुप में सुनियोजित ढंग
से प्रचारित कर दी गयी थी कि यादवजी के दरबार में सिर्फ हा हा ही ही और नौटंकीबाजी
होती रहती है, उस बात में कोई दम नहीं था। 2/36 अंसारी रोड में शाम को जुटने वाली महफिलों ने
अनेक वैचारिक बहसों को भी जन्म दिया है। हिंदी के पांच दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण
लेखक इस ‘यादव दरबार‘ की ही देन हैं। आज भी कोई हिंदी का लेखक अगर किसी दूसरे शहर से दिल्ली आता है तो
यह संभव ही नहीें है कि वह ‘हंस‘ कार्यालय में जाए बिना रह जाए। यह संपादक की नहीं व्यक्ति राजेन्द्र
यादव की विशेषता है जो लोगों को उनकी तरफ खींचती है। निश्छलता यादवजी का मूल स्वभाव
है। वह विरोध भी करते हैं तो शालीनता और प्रतीकात्मकता के साथ। एक उदाहरण देता हूं।
वे ‘चौथी दुनिया‘
से इस्तीफा देने के
बाद के बेरोजगारी के कठिन दिन थे। शाम तो शाम दोपहर भी ‘हंस‘ कार्यालय में बीतने लगी। यादवजी दोपहर को
एक पराठा खाते थे। एक पराठा अपने लिए भी आने लगा। फ्रीलांसिंग के सिलसिले में लोगों
को फोन करने पड़ते थे। तब मोबाइल का जमाना आम चलन में नहीं था। जाहिर है कि ‘हंस‘ कार्यालय का फोन ही
इस्तेमाल होता था। एक दिन तीन चार फोन करने के बाद मैं सुस्ताने के लिए सिगरेट पीने
लगा। तभी क्या देखता हूं कि यादवजी ने मोटी वाली एमटीएनएल की फोन डायरेक्टरी निकाल
कर मेरे सामने रख दी। मैंने कौतुहलवश पूछा, ‘यह किसलिए?‘ बड़ी सहजता से बोले-‘इसमें से देख के फोन
कर लो।‘ और फिर गूंजा उनका चिरपरिचित बेबाक ठहाका। मैं समझ गया कि वह क्या संदेश देना चाहते
हैं। ऐसे हैं यादवजी। असल में यादवजी के साथ अपने रिश्ते को व्याख्यायित करना बहुत
कठिन है। वह मेरे जीवन की एक असंभव और इसीलिए ऐद्रंजालिक उपस्थिति हैं। हर दूसरे दिन
टेलीफोन पर उनके मुंह से अपने लिए ‘नीच, अधम, पतित, राक्षस‘ आदि शब्द सुने बिना मैं खुद को बड़ा खाली खाली सा महसूस करता
था। उनके साथ बैठ कर बतियाने, बहस करने, दारु पीने और गरियाने की जो छूट और खुशी मिलती थी वह आज भी यादों
में एक दुर्लभ अनुभव की तरह थरथराती रहती है।
मैं जब जब हताश ,उदास और डिप्रेस्ड होकर उनके पास गया तब तब उनके मजाक, चुटकुले और गालियां सुन कर प्रफुल्ल लौटा।
उनके कुंठारहित और खुले व्यक्तित्व के कारण ही यह संभव हो पाया कि इतनी बड़ी दिल्ली
में मुझे कभी यह लगा ही नहीं कि मैं अपने कई और समकालीनों की तरह तथाकथित प्रतिष्ठित
लेखकों के आगे पीछे घूमूं और खुद को छला हुआ या अपमानित या श्रद्धाविगलित या निरीह
महसूस करुं। कलकत्ता, अलीगढ़, भागलपुर कितने ही शहरों में कितनी ही कथा गोष्ठियों में यादवजी का संग साथ मुझे
हमेशा उर्जावान बनाए रहा। उनका होना अपने जीवन में ऐसा है जैसा पिता का भी नहीं रहा।
आप सोच सकते हैं कि 28-29 साल पुराने रिश्ते में कुछ तो होगा कि मुझे मुंबई आए पूरे
22 साल हो गये मगर इन 22 सालों में एक भी 25 दिसंबर ऐसा नहीं गया जब सुबह दस से ग्यारह
के बीच यादवजी का फोन न आया हो। हमेशा एक ही सवाल- कितने साल के हो गये? क्या नई बदमाशियां
करनी हैं?
क्रमशः
जो जितना निकट का होता है, उसके बारे में कुछ कहना-लिखना उतना ही कठिन हो जाता है...! यादवजी से तुम्हारे सम्बन्ध बहुत निकट के और अत्यंत घनिष्ठ थे. फिर भी तुमने बहुत खुलकर उन्हें रेखांकित किया है. बहुत आत्मीय प्रसंग...!
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