संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
एक अप्रैल को मैं बेरोजगार रहा। मेरा उपन्यास ‘राधाकृष्ण‘ से छप रहा था - ‘समय एक शब्द भर नहीं है।‘
उसी की प्रगति को जानने
मैं राधाकृष्ण के मालिक अरविंद कुमार से मिलने गया। बाचतीच में यह बात खुल गयी कि मैं
राजकमल से इस्तीफा दे चुका हूं। अरविंद जी ने कहा, ‘हमें ज्वाइन कर लो।‘ मैंने पूछा, ‘कब से?‘ उन्होंने कहा, ‘आज से ही।‘ मैंने कहा, ‘कल से आ जाऊंगा।‘
और 2 अप्रैल 1981 से
मैं ‘राधाकृष्ण‘
का मुलाजिम हो गया--नौ
सौ रुपये महीने पर। 4 अगस्त को ललिता सफदरजंग अस्पताल में एडमिट हुई। दूसरी संतान को
जन्म देने के लिए। उसे भर्ती कराकर मैं घर लौटा तो ‘दिनमान‘ से नंदन जी का खत आया मिला कि तत्काल
मिलो। मैं उल्टे पांव ‘दिनमान‘ पहुंचा। वहां ‘सारिका‘ में बलराम के पास जाकर बैठा और नंदन जी को अपने नाम की
चिट भिजवा दी। बलराम मुझे देखकर मुस्कराया और बोला, ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार,
दीवारेदर को गौर से
पहचान लीजिए।‘ थोड़ी देर में नंदन जी ने बुला भेजा और बोले, ‘7 अगस्त से ‘दिनमान‘ ज्वाइन कर लो। फिलहाल प्रूफरीडर
का पद है। बाद में उप-संपादक के लिए प्रयत्न करूंगा।‘ मैं उनका आभारी होता हुआ घर लौटा
और अस्पताल पहुंचा, तब तक ललिता दूसरे बेटे राहुल को जन्म दे चुकी थी। साल-भर प्रूफ रीडरी करने के
बाद अंततः मैं ‘दिनमान‘ में उप-संपादक हुआ। ‘दिनमान‘ के अंतिम दिनों में लेखक मित्र वीरेन्द्र जैन के सहयोग और आग्रह
के कारण मैंने भी दिल्ली के सादतपुर इलाके में एक सौ गज का प्लॉट खरीद कर उस पर छोटा
सा घर बना लिया था। सादतपुर जैसे छोटे से इलाके को पूरे देश के रचनाकार इस कारण जानते
थे क्योंकि वहां पर बाबा नागर्जुन जैसा बड़ा कवि, रमाकांत जैसा बड़ा कहानीकार और हरिपाल
त्यागी जैसा बड़ा चित्रकार रहता था। इनमें से रमाकांत और बाबा नागार्जुन अब नहीं हैं।
और सादतपुर को अब नागार्जुन नगर कहा जाने लगा है। अपने आप में यह एक बेहद गौरवान्वित
कर देने वाला एहसास है कि मैं उन सौभाग्यशाली लेखकों में से हूं जो जनकवि बाबा नागार्जुन
के समय में रहते थे। सादतपुर पहुंचकर मैं नागार्जुन के समय में ही नहीं, उनके सान्निध्य में भी उपस्थित
हो गया। बाबा का आना जाना हर घर में था-साधिकार। कहीं चाय पीते थे, कहीं पकौड़ी खाते थे। कहीं
भोजन करते थे। कहीं पुराने दिनों की जुगाली करते थे। किसी घर में अपनी किसी विशेष रचना
से जुड़े संस्मरण को शब्द दे रहे होते थे। रहते सादतपुर में थे लेकिन देश के कई लेखकों
के घरों में उनका एक जोड़ी कुर्ता-पायजामा बकायदा तह कर रखा रहता था। क्या पता कब किसके
घर आ जाएं। यूं ही नहीं कोई जनकवि बन जाता। मूड में आने पर कहते थे - लेखक को जनता
के बीच जासूस की तरह रहना चाहिए। एक बार एक बड़ा पुरस्कार मिलने पर मैं उनका इंटरव्यू
ले रहा था तो बोले -‘जब न मुंह में दांत है न पेट में आंत, तब पुरस्कार लेकर क्या करना है।‘ पुरस्कार युवा लोगों को मिलना
चाहिए। पुरस्कारों को लेकर उनकी स्पष्ट राय थी कि यह जनता का पैसा है इसलिए पुरस्कार
लेने में कोई हर्ज नहीं है। सादतपुर में जिन दोस्तों के साथ अपनी आत्मीयता ने आकार
लिया उनमें महेश दर्पण, रामकुमार कृषक, वीरेन्द्र जैन, विजय श्रीवास्तव, सुरेश सलिल प्रमुख हैं। ये
सब आज भी मेरे खास दोस्तों में शामिल हैं। हां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि रामकुमार
कृषक से मेरी दोस्ती राजकमल के दिनों में ही हो गई थी। हम दोनों वहां काम करते थे और
दोपहर का भोजन अक्सर साथ करते थे। सादतपुर आने के बाद मेरी पत्नी ललिता और कृषक जी
की पत्नी विमला में भी गहरी दोस्ती हो गई और इस प्रकार हम पारिवारिक मित्र बन गए। यहां
विभूति नारायण राय का जिक्र करना भी आवश्यक है। उनके साथ मेरा आत्मीय रिश्ता अनायास
ही विकसित होता चला गया। बहुत कम लोगों को यह मालूम था कि मैं कविताएं भी लिखता हूं।
लेकिन राय साहब ने अपनी पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य‘ में मेरी अनेक कविताएं प्रकाशित कर के मेरा कवि रूप भी
जग जाहिर किया। जिन दिनों मैं साप्ताहिक ‘चौथी दुनिया‘ में मुख्य उपसंपादक था उन्हीं दिनों
हमारी शादी की दसवीं सालगिरह आई। यह 13 जून 1988 का दिन था। विभूति नारायण जी को यह
बात मालूम थी। वर्षगांठ से एक दिन पहले सुबह-सुबह उन्होंने यह सरप्राइज दिया कि हमारी
दसवीं सालगिरह का जश्न गाजियाबाद के एक पार्टी हॉल के विशाल और खुले लॉन में मनाया
जाएगा। इसके लिए उन्होंने ‘चौथी दुनिया‘ के पूरे स्टाफ को गाजियाबाद आमंत्रित किया था। यह पार्टी
शानदार ढंग से मनी जिसकी स्मृतियां आज भी चेतना में कौंधा करती हैं। उन दिनों राय साहब
गाजियाबाद के एस.पी. हुआ करते थे। तब से लेकर अब तक जबकि वह वर्धा स्थित महात्मागांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, हमारी आत्मीयता न सिर्फ कायम है बल्कि
निरंतर मजबूत हुई है। उन्होंने जब भी कोई बड़ा आयोजन किया अपने को जरूर बुलाया। कविता
से मेरा नाता केवल पढ़ने भर का है। लेकिन जब वर्धा में राय साहब ने केदार, शमेशर, अज्ञेय और नागार्जुन की जन्मशती
पर आयोजन किया तो भी अपने को वहां बुलाया। यह है उनका प्रेम। शायद इसलिए कि वह जानते
थे कि बाबा नागार्जुन से हमारे पारिवारिक रिश्ते रहे हैं। ऐसी नजरें हर किसी की नहीं
होतीं।
क्रमशः
जानता हूँ, मेरे और तुम्हारे संपर्क की कड़ी बहुत जल्दी टूट गई थी, इतनी जल्दी कि हमारी मित्रता प्रगाढ़ होती, इससे पहले ही मैं दिल्ली छोड़ गया था. और ऐसी प्रलयंकारी दुनिया में चला गया था, जहां सिर्फ खाता-बहियाँ थीं, जीवन नहीं था, साहित्य नहीं था, रचनाएं और पत्र-पत्रिकाएं पढने का अवकाश नहीं था.
ReplyDeleteमेरा संपर्क जब टूटा, उसके बाद का वृत्तांत पढ़ना सुखकर है. करीब ३२ वर्षों बाद मुझे कृषकजी फोन पर मिले थे औए ३७ वर्षों बाद वीरेन्द्र जैन और उसके बाद तुम...! कृषक ने फ़ोन पर कहा था, मैं आकर नॉएडा से तुम्हें सादतपुर ले जाऊँगा, वह आते, उसके पहले ही नॉएडा भी छूट गया और मैं पूना आ गया. अब तुम्हारे बगल में हूँ, लेकिन कब मिलना हो सकेगा, कह नहीं सकता! लेकिन एक बार मिलने की इच्छा होती है... बहुत दिन बीते भाई...!