संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
दिल्ली में मेरे फौरन बाद राजकुमार भी आ गया था। और उसके
कुछ ही समय बाद बलराम भी। राजकुमार का दर्जा और अहमियत मेरे जीवन में निष्ठा और अपेक्षारहित
मित्रता के संदर्भ में बहुत ऊंचाई पर कोहेनूर की तरह चमकते रत्न जैसी है-आज तक। और
संयोग इतना सुखद रहा कि हम तीनों ही राजधानी आ बसे--कमोबेश एक जैसी स्थितियों से जूझते
और उनसे पार पाते हुए। दिल्ली में हमारा काफी समय दक्षिण दिल्ली की कॉलोनी नेताजी नगर
और उसके ऐन सामने बसी सरोजनी नगर में बीता। इस समय में हम तकरीबन रोज शाम आपस में मिलते,
बतियाते और एक-दूसरे
के सुख-दुख को गहन आत्मीयता के स्तर पर लेते-देते। इस साथ ने हमारी मित्रता को तो एक
स्थायी रागात्मक आधार दिया ही, हमें राजधानी के साहित्यिक छल-छद्म, द्वेष, प्रतिस्पर्धा और गलाकाट संस्कृति
में फंसने से भी बचाये रखा। इस साथ का एक अत्यंत सकारात्मक पहलू यह है कि इसने हमारे
रचानत्मक कोषों को लगातार सक्रिय और सिंचित रखा और सृजनात्मक शब्द की महत्ता और सर्वोच्चता
के प्रति हमें सतत आस्थावान रखा। इस दौर में हम तीनों ही कहानी, समीक्षा, साक्षात्कार और पत्रकारिता
सभी स्तरों पर अनवरत सक्रिय रहे। मुजफ्फरनगर ने अगर रचना के प्रति एक कशिश-भरा स्वप्न
मन में पैदा किया, तो देहरादून के जटिल, अंतर्विरोधी, असंभव और निर्मम समय और अनुभव ने रचनाकार होने की स्थितियों,
अनिवार्यताओं,
दबावों और यथार्थ को
संभव किया। और दिल्ली ने दिया एक उन्मुक्त, असीम और खुला हुआ आकाश। दिल्ली आने
से जुड़ा एक वाकया यहां रेखांकित करना जरूरी है। भीमसेन त्यागी द्वारा राजकमल में नौकरी दिलाये जाने से पूर्व मैं सुरेश उनियाल से कई बार
यह आग्रह कर चुका था कि वह किसी भी तरह मुझे भी दिल्ली बुला ले। लेकिन जब अचानक शादी
हो गयी और देहरादून निराश करने लगा तो मैंने सुरेश से काफी संजीदगी से यह आग्रह फिर
दुहराया। सुरेश ने कहा, ‘दिल्ली में क्या तू समझता है कि जाते ही नौकरी मिल जायेगी!‘
उसने आगे कहा कि ‘दिल्ली में आने के लिए नौकरी
का नियुक्ति-पत्र न भी हो तो कम-से-कम कोई बुलावा तो हो।‘ आगे इस विषय में मैंने उससे कोई बात
नहीं की। और इसके कुछ ही रोज बाद मैं उसके दफ्तर में बैठा उसे बता रहा था कि मैंने
राजकमल ज्वाइन कर लिया है। इस घटना का उल्लेख इसलिए कि दिल्ली आने से पहले ही दिल्ली
का आतंक मेरे मन में हालांकि जड़ें जमा चुका था लेकिन चेतना में कहीं भीमसेन त्यागी
का वह वाक्य भी अक्सर कौंधता रहता था जो उन्होंने मुझसे दिल्ली के लिए प्रस्थान करते
वक्त कहा था। उन्होंने कहा था, ‘दिल्ली बहुत निर्मम शहर है, वहां जीना और रहना बहुत यातनाजनक
और असाध्य है, लेकिन सिर्फ उनके लिए जिनमें जिजीविषा न हो। अगर लड़ने का माद्दा है तो यही दिल्ली
आपको इस गहराई से अपना भी लेती है कि फिर आप वहां के होकर रह जाते हैं।‘ और यही कारण है कि प्रतिकूल
से प्रतिकूल मौकों पर भी मैंने यह कभी नहीं सोचा कि यहां से भाग लिया जाये। मैं यह
सोचकर दिल्ली में उतरा था कि यहां नहीं, तो कहीं नहीं। और जब पहले मैं अकेला और बाद में ललिता
को लेकर दिल्ली आया, तो हमारे पास गृहस्थी के नाम पर एक चम्मच भी नहीं थी और हमारे तन पर सिर्फ एक-एक
जोड़ा कपड़ा ही था।
क्रमशः
सच में, तुमने असम्भव-से स्वप्न को सच कर दिखाया है. दिल्ली को मैं आज तक 'मारक शहर' कहता हूँ; लेकिन जैसा तुमने लिखा है--‘दिल्ली बहुत निर्मम शहर है, वहां जीना और रहना बहुत यातनाजनक और असाध्य है, लेकिन सिर्फ उनके लिए जिनमें जिजीविषा न हो। अगर लड़ने का माद्दा है तो यही दिल्ली आपको इस गहराई से अपना भी लेती है!...' दिल्ली ने तुम्हें अपना लिया था; क्योंकि अपनी जिजीविषा से तुमने दिल्ली को ऐसा करने के लिए बाध्य कर दिया था. फिर भी दिल्ली ने जख्म तो दिए ही थे.... शानदार प्रेरक विवरण...!
ReplyDeleteप्रेरक।
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