संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
बहरहाल! देहरादून में डॉ. आर. के. वर्मा के साप्ताहिक
अखबार ‘1970‘
में 50 रुपये माहवार
पर सहायक संपादकी (जिसमें मेहमानों के आने पर सड़क पार की चाय की दुकान से चाय लाना
भी शामिल था) करने से लेकर ‘वैनगार्ड‘ साप्ताहिक में 75 रुपये महीने पर प्रूफ पढ़ने तक (जिसमें कभी-कभी
मशीनमैन का सहायक बनकर छपा हुआ पेज मशीन के दो जबड़ों से बाहर निकालने का काम भी शामिल
था) और घरेलू स्थितियों की असहनीयता से ऊबकर लखनऊ भाग जाने तथा वहां फुटपाथ पर रातें
बिताने के बाद मित्र कौशल किशोर के कमरे में शरण लेने से लेकर वापस देहरादून लौटकर
छात्र राजनीति में सक्रिय होने तक का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसने मेरे रचनात्मक संसार
में काफी कुछ जोड़ा।
अप्रैल 1975 में मेरी पहल मेच्योर कहानी ‘लोग/हाशिए पर‘ देहरादून की ‘सिलसिला‘ त्रैमासिक पत्रिका में छपी।
इससे पहले तक मेरे अवयस्क और आरंभिक प्रयासों के रूप में कुछ कहानियां पंजाब केसरी,
दैनिक मिलाप,
वैनगार्ड और अन्य पत्रिकाओं
में छप रही थीं (ये सभी कहानियां मैं रद्द कर चुका हूं और ये मेरे किसी भी संग्रह में
संकलित नहीं हैं)। ‘लोग/हाशिए पर‘ छपी तो देश-भर के लेखकों-पाठकों के खतों से मेरा झोला भर गया। बलराम का खत भी उन्हीं
दिनों मिला। तब नहीं जाना था कि चार अक्षरों वाला यह नाम एक दिन मेरे भावनात्मक जगत
को पूरी तरह से छा लेगा। ‘लोग/हाशिए पर‘ छपते ही मुझे बतौर साहित्यकार स्वीकार कर लिया गया।
कहानी छपी तो देश भर के लेखकों-पाठकों के खतों का अंबार
लग गया। इनमें नये, पुराने प्रतिष्ठित सभी तरह के लोग थे। मैं चकित और अभिभूत दोनों था। एक ही कहानी
से मुझे बतौर रचनाकार स्वीकार कर लिया जाएगा ऐसा मैंने हर्गिज नहीं सोचा था। क्योंकि
वह एक कठिन जमाना था। उन दिनों साहित्यकार बनना इतना आसान नहीं होता था। कुछ नया और
अनूठा कर के दिखाना होता था और पढ़ाई भी खूब करनी पड़ती थी। उन दिनों होता यह था कि कुछ
दिन मैं अपने नाम आए/आ रहे खत पढ़ता और फिर अपनी कहानी फिर से पढ़ता। कुछ दिनों के इस
घटनाक्रम के बाद आखिर मैंने भी मान लिया कि मैंने एक कामयाब कहानी लिख डाली है। 19
साल की उम्र में साहित्य के प्रांगण में यह
उपलब्धि मायने रखती है। तब मैं बी.ए. के प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था - देहरादून के डी.ए.वी.
कॉलेज में। एक ही कहानी के जरिए मेरी दुनिया बदल गई थी। उस एक कहानी ने डी.ए.वी. कॉलेज
के एक साधारण छात्र को दिल्ली, कोलकाता, कानपुर, इलाहबाद, वाराणसी, पटना, मुंबई, जोधपुर, जयपुर, लखनऊ, जबलपुर, भोपाल, जैसे शहरों के बड़े लेखकों से जोड़ दिया था। उन दिनों खत लिखने
का भारी चलन था और हिंदी लेखक का भी खासा ‘ठाठ-बाट‘ हुआ करता था। यह काफी उथल-पुथल भरे और राजनैतिक रूप से
आंदोलनकारी दिन थे। पूरे देश में जेपी आंदोलन शीर्ष पर था। सन् 1975 के मई महीने में
किसी ने नहीं सोचा था कि सन् 75 के जून महीने की 26 तारीख को देश में आपात काल लगने
वाला है। और वह लगा। उसकी एक अलग कहानी है। और उस पर भी अपनी एक कहानी है।
क्रमशः
‘लोग/हाशिए पर' मैंने तब पढ़ी थी, जब तुम राजकमल में आये थे और मुझ से जुड़ गए थे. तुम्हें अमित सम्भावनाओं से जूझते हुए मैंने तब भी देखा था, लेकिन वह बहुत बाद की बात है. अभी तो तुम्हारी लेखन-धार के साथ बहने का सुख ले रहा हूँ...!
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