Saturday, January 25, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 3

संक्षिप्त आत्मरचना
3
सतह से उठता हुआ आदमी 

धीरेन्द्र अस्थाना 

यहां जिस रात थाली में मुर्गा होता था, उसके अगले दो रोज तक सिर्फ चने भी हो सकते थे। यहां फिल्म देखने के लिए जिस दिन पांच-दस रुपये मिल सकते थे, उसके अगले कई दिनों तक घर से कॉलेज की दूरी के लिए बस का टिकट खरीदने की चवन्नी अपने एक पान वाले दोस्त ब्रह्मप्रकाश से मांगनी पड़ सकती थी। यहीं बाप और दादा में मल्लयुद्ध होते देखा, यहीं मां को मार खाते देखा और यहीं पिता के विरूद्ध एक बेचैनी, एक प्रतिवाद, एक प्रतिकार और एक अवज्ञा को मन में आकार लेते भी पाया। पिता के विरूद्ध पहला प्रतिवाद मैंने यह किया कि चार मीनार की सिगरेट फूंकते हुए पूरे प्रेमनगर (देहरादून की एक बस्ती) के चक्कर काट आया ताकि शाम तक उनके पास यह खबर पहुंच जाये। खबर उन तक पहुंची लेकिन वे उसे पचा गये तो मैं एक रात, पहली बार, शराब पी आया और घर में आकर उल्टी कर दी। (वह पहली उल्टी थी। तब से आज तक जीवन में शराब कितनी ही पी ली हो, पर उल्टी कभी नहीं की।) इसका भी कोई असर नहीं हुआ, तो मैंने रातें अक्सर घर के बाहर बितानी शुरू कर दीं।
देहरादून में मेरा परिचय सुखवीर विश्वकर्मा, विपिन बिहारी सुमन, सुरेश उनियाल, सुभाष पंत, अवधेश कुमार, नवीन नौटियाल, सतीश चांद, वेदिका वेद आदि आदि के साथ ही देशबंधु से भी हुआ। देशबंधु मेरे जीवन की घटना ही नहीं, कल्पनातीत अनुभव भी साबित हुआ। उन्हीं दिनों मैं देहरादून से निकलने वाले ‘वेनगार्ड‘ अखबार में 75 रुपए प्रति माह पर प्रूफ रीडर बन गया। प्रूफरीडरी करते हुए ‘ज्ञानलोक लाइब्रेरी‘ का सदस्य बना। जहां मैंने मुक्तिबोध, प्रेमचंद, निराला, शमशेर, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, राहुल सांकृत्यायन, कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि को विधिवत पढ़ा। यहां रहते हुए कथा साहित्य की ओर मैं ज्यादा आकृष्ट हुआ। 

क्रमशः

1 comment:

  1. विवरण रोचक है, अगली क़िस्त कि प्रतीक्षा रहेगी...!
    --anandvardhan ojha.

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