Thursday, January 30, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 7

संक्षिप्त आत्मरचना
संक्षिप्त आत्मरचना
7
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


लेकिन दिल्ली में लड़ने, जीने, बचे रहने, बनने और संवरने का अध्याय अगर किसी ने लिखा है तो केवल ललिता ने। आज जो यह थोड़ी-बहुत रचनात्मक उपलब्धियां दिख रही हैं, इनके पीछे की संघर्षशीलता, यातना, हताशा  और अंधेरे को उसे बूंद-बूंद पिया है और कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि इस अनवरत लड़ाई और अभाव को झेलने का उसे कोई पछतावा या अफसोस है। कई बार तो यह भी हुआ कि अगर मैं टूटने लगा, तो उसने आगे बढ़कर मेरे रेशे-रेशे को अपनी हथेलियों में सहेज लिया। जिसे सही मायने में नरक कहते हैं, उसी के बीच निर्विकार और निःशब्द चलती रही। आज यह स्वीकार करने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि धूल, धूप, वर्षा, अभाव, यातना, वंचना, अपमान, प्रलोभन और हताशा के बीचोंबीच खड़े रहकर भी मैं अपनी अस्मिता, इयत्ता, स्वाभिमान और लेखकीय तकाजों को जीवित रख सका तो सिर्फ इसलिए कि ललिता जैसी आजाद ख्याल, स्वाभिमानी, स्त्री के अधिकारों के प्रति सतत चौकस, लेकिन सहृदय, सहिष्णु और सहनशील ललिता बतौर हमसफर मुझे मिली हुई थी। उसने मुझे उठाया, संवारा और युद्ध के लिए सन्नद्ध किया। स्त्री सुलभ चाहतों के पूरा न होने पर कभी-कभार वह भिन्नायी जरूर, लेकिन इस सहज दुख को उसने कभी भी मेरे रास्ते में दीवार की तरह खड़ा नहीं किया। यह एक तल्ख स्वीकार है कि अगर 1977 के अंतिम समय में मेरा-उसका परिचय न हुआ होता और 13 जून 1978 के रोज वह सहसा मेरे सामने आकर खड़ी न हो गयी होती, तो मैं अब तक या तो देहरादून के किसी शराब के ठेके पर मर-मरा चुका होता या आत्महत्या कर चुका होता। ललिता की उपस्थिति ने मेरे भीतर जीने के जज्बे को तो पैदा किया ही, मेरे कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी बने रहने की प्रक्रिया में कैटेलिस्टकी भूमिका भी अदा की। हर पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का अस्तित्व निःशब्द बजता हैइस वाक्य को अपने संदर्भ में ललिता के लिए निःसंकोच रेखांकित किया जा सकता है। दिल्ली आकर यह जो मैं बिना भविष्य की परवाह किये नौकरियों से इस्तीफा देता रहा और नौकरी की संहारक और प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने लेखक को बचाये रख सका, उसका आधा-अधूरा नहीं, पूरा श्रेय ललिता को जाता है। उसने मेरे सुखों को नहीं, दुखों को शेयर किया और वह भी मुझसे मिली वंचनाओं और अवमाननाओं के बावजूद।
क्रमशः


1 comment:

  1. सच बोलना-लिखना कठिन होता है... और आज के दौर में तो वह जोखिम का काम भी हो गया है! यह जोखिम तुमने उठाया है और अपने अतीत को जिस साफगोई और सचाई से कागज़ पर तुम उतार रहे हो, वह सच्चाई प्रभावित करती है, प्रीतिकर लगती है. जितना साहस बटोर कर ललितजी तुम्हारे जीवन में आयी थीं, निश्चय ही उससे बहुत ज्यादा साहस, संयम और धीरता धारण कर उन्होंने तुम्हारा, परिवार का जीवन-पथ सजाया-संवारा होगा! तुमने सत्यतः उसे रेखांकित कर आभार व्यक्त किया है, यह उचित ही है! ललितजी को मेरा नमस्कार कहो....
    आगे लिखो, मुन्तज़िर हूँ...!

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