संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ
आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
मुजफ्फरनगर में मेरा आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक आधार राजकुमार गौतम
था, तो देहरादून में
यह दायित्व संभाला देशबंधु ने। देशबंधु एक असंभव, जटिल लेकिन मूलतः भावुकता की हद तक संवेदनशील व्यक्ति था। उससे
दोस्ती बढ़ी तो मैं सर्वांग उसका हो लिया। मेरे खुद के स्वप्नों, संघर्षों, यातनाओं, कोमलताओं, बेचैनी, भावुकता, कमजोरी
और अंतर्विरोधी चरित्र को देहरादून में सिर्फ उसी ने महसूस और स्वीकार किया। वह न होता
तो आज मैं वैसा न होता, जैसा हूं।
वह खतरनाक सीमाओं तक बीहड़ और चुप्पा था, लेकिन अपने
एक ही वाक्य या भंगिमा से अपनी बेचैनी या नाराजगी या खुशी प्रकट कर देने में समर्थ
था। वह बहुत कम लोगों को पसंद कर पाता था, बहुत श्रेष्ठ
ही पढ़ता था और बहुत विकट रचता था। मुक्तिबोध उसका प्रियतम लेखक था और जीवन के काले, नारकीय और सड़ांध-भरे पक्ष को जानने-समझने
के लिए वह उस जीवन में सारी सीमाएं तोड़ता हुआ घुसता था - मुझे भी साथ लिये। उसके साथ
बिताये क्षणों का उद्घाटन-रेखांकन यहां गैरजरूरी नहीं, अनिवार्य है, क्योंकि देशबंधु को गैरहाजिर करने से वह
प्रक्रिया गायब हो जायेगी जिसको जानकर और जिससे गुजरकर ही मेरे चरित्र और लेखन को समझा
जा सकता है। मेरी सबसे चर्चित और सबसे पहली कहानी ‘लोग हाशिए पर‘ का ‘कोरिलेटिव‘ देशबंधु ही है। मेरी विवादास्पद कहानी ‘जन्मभूमि‘ उसके चरित्र के माध्यम से ही मेरी अपनी जटिलताओं को मूर्त कर
सकी है। केवल तैंतीस वर्ष की उम्र में ही शराबमय हो जाने वाले मेरे तन-मन के पीछे देशबंधु
की ही उपस्थिति जिम्मेदार है। केवल तेरह वर्ष के लेखन में ही जीवन को दसों उंगलियों
से पकड़ पाने की बेचैनी और छटपटाहट के पीछे देशबंधु ही कौंध रहा है। वह देशबंधु ही है
जिसने यह समझ, धैर्य और संवेदना
संभव करायी कि नरक में ही कहीं छुपे हैं वे लोग, जिनसे स्वर्ग की रचना संभव होगी, कि मुक्ति का रास्ता भले ही अकेले न मिलता
हो लेकिन रचना के शिखरों पर, दूसरों
से अलग रहने का जोखिम उठाते हुए ही चढ़ा जा सकता है, कि बार-बार छले जाने के बावजूद, मानवीय और संवेदनशील बने रहना रचनाकार होने
की प्राथमिक शर्त है, कि दोस्ती
समीकरण का नहीं, जज्बे और परित्र
समर्पण का नाम है। उसने उम्र के 35वें वर्ष में विवाह किया और विवाह के अगले रोज उसकी
लाश देहरादून के डाकपत्थर की नहर में पायी गयी। वह जीवित रहता तो दूसरा मुक्तिबोध नहीं, पहला देशबंधु बनता। उसके साथ मैं रोजाना
देहरादून के विभिन्न शराबघरों में रात के बारह-बारह बजे तक शराब पीता था, दो-दो बजे तक सड़कों पर घूमता-फिरता था और
सैकड़ों शराबियों, गुंडों, बदमाशों, गरीबों, क्रांतिकारियों, दुकानदारों और सिनेमाहॉल के गेटकीपरों के
मनोलोक, स्वप्नलोक और जीवन-स्थितियों
में तैरता-उतराता और उनसे टकराता-जूझता था। वह न होता तो जीवन की तलछट अनजानी-अनपहचानी
रह जाती। तिब्बतियों की बस्ती में उपलब्ध छंग,
देहरादून के गांवों में बनने वाली कच्ची शराब, ठेकों पर मिलने वाला ठर्रा, चायघरों में बिकने वाली हरी और नशीली चाय और बारों में मिलने
वाले रम और व्हिस्की के स्मॉल और लार्ज पैग,
उसी की बदौलत जीवन के अनुभवों में शरीक हुए। उत्तर प्रदेश और हिमाचल की सीमारेखा
पर खड़े होकर रात के दस बजे हिमाचल की ‘हरी‘ शराब ‘नीट‘ पी लेने
का जोखिम और रोमांच महसूस किया उसी के साथ।
क्रमशः
ए भाई, रोमांचित करनेवाला विवरण लिख रहे हो!... जब 'आलोचना पुस्तक परिवार' की डेस्क पर झुककर तुम क्लर्की करते थे और मैं किसी-न-किसी बहाने तुमसे थोड़ी बातें कर आता था, तब कहाँ जानता था कि अजाब के किस समंदर को पार कर तुम यहाँ आ बैठे हो...!
ReplyDeleteअब यह सब जानना हैरत में डाल रहा है... जिज्ञासा बढ़ती जा रही है...विशेषकर दीनबंधु के बारे मैं...! लिखते रहो...!