Wednesday, February 26, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 15


संक्षिप्त आत्मरचना
15
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


इसके बाद भी अगर अपनी कहानियों के बारे में कुछ कहना बाकी रह जाता है तो मैं इतना ही कहूंगा कि जो लोग जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गये हैं वही लोग मेरी कहानियों में आगे आ गये हैं। मैंने अपने-आपको हमेशा इन्हीं पीछे छूट गये, पराजित लोगों के साथ पाया है इसलिए मेरी कहानियां भी इन्हीं हारे हुए लोगों की तकलीफ, गुस्से, कुंठा, विक्षोभ, चीख-पुकार और विद्रोह के धागे से बुनी गयी हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नातों, नौकरी-समाज यानी कि जीवन की समग्र जद्दोहद और प्रत्येक मोर्चें पर यदि मैं अपने-आपको दूसरों की आंख से देखता हूं तो पाता हूं कि आज के इस उपयोगितावादी दृष्टिकोण वाले सामाज में मैं नितांत अनुपयोगी और अप्रासंगिक सिद्ध हो चुका हूं। मेरी तमाम कोशिशें फिजूल और प्रतिबद्धताएं संदिग्ध ठहरायी जा चुकी हैं। एक बड़े संसार में एक छोटे आदमी के अकेले पड़ जाने की यह विराट पीड़ा है जिसे अपनी आंख से देखने और महसूस करने पर मैं इस मुल्क के एक बड़े वर्ग-समूह की छाती में कलपता पाता हूं। यह देखना ही मेरे तईं दृष्टि है और इस देखे हुए को पूरी ताकत, पूरी शिद्दत और पूरी ईमानदारी से लोगों को दिखाना ही मेरे तईं प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता की इससे इतर परिभाषा देनेवाले लोगों के लिए यह फोटोग्रेफिक यथार्थवाद हो सकता है और राजनीति के जॉर्गन्स साहित्य पर लादते हुए वे इस कोशिश को भी संदिग्ध और अप्रासंगिक ठहरा सकते हैं। ठहरायें, उन्हें इसका हक है। मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि मैं उन लोगों के बीच खड़ा हूं जिनके हक छीन लिये गये हैं। लेकिन इससे यह समझने की भूल न की जाये कि मेरी दुनिया के लोग हतवीर्यों का झुंड मात्र हैं और वे कभी भी कोई फैसला नहीं देंगे। वे फैसला देंगे और एक ही बार देंगे। यही मेरा आशावाद है--जीवन में भी और जीवन से प्रभावित होने तथा जीवन को प्रभावित करनेवाले साहित्य में भी। न तो जीवन ही व्यक्तिगत इच्छाओं या सनकों से संचालित होता है और न ही साहित्य को किसिम-किसिम की प्रतिबद्धताओं या सुविधावादी सिद्धांतों के चौखटे में जड़ा जा सकता है। न तो जिंदगी की लड़ाई एक ही मोर्चे पर लड़ी जाती है और न साहित्य के सरोकार ही नाक की सीध वाली संकरी गली में दौड़ते हैं। और इसीलिए तथा अनायास भी मैं जिंदगी को दसों उंगलियों से पकड़ पाने की छटपटाहट में डूबा लेखक हूं। जिस जिंदगी को मैं दसों उंगलियों से पकड़ पाने के लिए बेचैन हूं वह बिना शक मेरी मध्यवर्गीय दुनिया की जिंदगी है और इसीलिए अनेक आलोचकों के लिए वह सीमित भी है। अपनी इस सीमा को स्वीकार करने के बावजूद मुझे लगता है कि इस तथाकथित छोटे संसार को भी यदि कोई रचनाकार उसके समूचे अंतर्विरोध के साथ पकड़ सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि है।
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 14


संक्षिप्त आत्मरचना
14
सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना


  मेरे जीवन में एक दुख है। एक बार यादवजी एक साहित्यिक समारोह में मुंबई आए। जाहिर है उनके रहने ठहरने खाने की उत्तम व्यवस्थाएं आयोजकों ने की हुई थीं। बाहर से जब कोई बड़ा लेखक मुंबई आता है तो उसे नरीमन पॉइंट से अंधेरी के बीच स्थित किसी होटल में ठहराने का रिवाज है। विराट और वैभवशाली हो जाने के बावजूद अंधेरी से आगे बढ़ने को रिस्कीमाना जाता है। मीरा रोड तो रिस्क जोनबोरीवली से भी दो स्टेशन आगे है। तो यादवजी आए और ऐसा कैसे संभव कि मीरा रोड न आएं। वह आये। खाना खाया लेकिन रात में ही निकल गये। उनके जाने के कुछ दिनों के बाद मैंने अपने घर में इंगलिश टॉयलेट भी बनवाया लेकिन यादवजी उसके बाद मुंबई ही नहीं आए। अब तो मैं भी वह घर छोड़ कर नये घर में आ गया हूं जहां फिर से इंगलिश टॉयलेट नहीं है। मैने बताया न कि मेरा राजेन्द्र यादव से कोई स्वार्थी नाता नहीं है। इतने लंबे घनिष्ठ रिश्ते वाले समय में मेरी कुल तीन कहानियां हंसमें छपी हैं। मेरी किताबों पर कोई भी चर्चा हंसमें बहुत गर्मजोशी से नहीं हुई है लेकिन इस से क्या? मेरा नाता राजेन्द्र यादव से है, ‘हंससे नहीं। और राजेन्द्र यादव का अर्थ मेरे आसमान में कोहेनूर की तरह बेशकीमती तथा दुर्लभ है। और हरिप्रकाश त्यागी तो यारों का यार है ही। मैंने और त्यागी ने रंगों और रेखाओं की दुनिया में ही नहीं रंगमंच और फिल्म संसार की बारीकियों, महत्व और दूसरी कलाओं के साथ उनके अंतःसंबंधों पर भी बहस की है। मेरी कितनी ही कहानियों पर उसकी और उसकी कितनी ही कविताओं और कला-समीक्षाओं पर मेरी राय और सुझााव अंकित हैं। हम वर्षा और ठंड को ठेंगा दिखाते हुए शराब पीने के लिए भी मिले और कला प्रदर्शनियों में भी पहुंचे। हमने हुसैन, सूजा और खोसा पर भी बहस की और रजनीश तथा महेश योगी पर भी। हमने सेक्स पर भी बातें कीं और स्त्रियों के ईरोटिक ड्रीम्सके मनोविज्ञान पर भी और जितना रचनात्मक काम करना चाहिए उतना न कर पाने की पीड़ा से उदास भी हुए। हमने एक-दूसरे से प्यार भी किया और एक-दूसरे को गालियां भी दीं।
तो इस तरह मैं शराबी-कबाबी दोस्तों के साथ गुजरी आबाद-बरबाद रातों, छात्रों की हड़तालों, मजदूरों के जुलूसों, बौद्धिकों के स्वप्नों, क्रांतिकारियों के भाषणों, अभावों के दुखों, दुखों की भाषा और भाषा के आंदोलनों से होकर लेखन को छोड़ता क्रांति को अपनाता, क्रांति को छोड़ता प्रेम को पकड़ता, प्रेम से मुक्त होता शराब में डूबता, शराब से निकलता थियेटर में घुसता, थियेटर से भागता नौकरी को ढूंढ़ता, नौकरी को छोड़ता शहरों में भटकता, लोगों में जाता, लोगों से आता, हजार-हजार लगावों, परेशानियों और कुंठाओं में डूबता-उतराता हुआ अंततः राजधानी में हूं--पांच कहानी-संग्रहों, दो उपन्यासों, दो नाटकों, एक इंटरव्यू की किताब और कुछेक समीक्षाओं की बहुत थोड़ी-सी पूंजी के साथ, श्रीकांत वर्मा की तरह अपने से यह कहता हुआ --पूछती है सैयदा, इस जिंदगी का क्या किया?‘

क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 13


संक्षिप्त आत्मरचना
13
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

  उद्धरण और भी हैं। यहां यह बताना उद्देश्य है कि दिल्ली में जो एक बात बड़े व्यापक रुप में सुनियोजित ढंग से प्रचारित कर दी गयी थी कि यादवजी के दरबार में सिर्फ हा हा ही ही और नौटंकीबाजी होती रहती है, उस बात में कोई दम नहीं था। 2/36 अंसारी रोड में शाम को जुटने वाली महफिलों ने अनेक वैचारिक बहसों को भी जन्म दिया है। हिंदी के पांच दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण लेखक इस यादव दरबारकी ही देन हैं। आज भी कोई हिंदी का लेखक अगर किसी दूसरे शहर से दिल्ली आता है तो यह संभव ही नहीें है कि वह हंसकार्यालय में जाए बिना रह जाए। यह संपादक की नहीं व्यक्ति राजेन्द्र यादव की विशेषता है जो लोगों को उनकी तरफ खींचती है। निश्छलता यादवजी का मूल स्वभाव है। वह विरोध भी करते हैं तो शालीनता और प्रतीकात्मकता के साथ। एक उदाहरण देता हूं। वे चौथी दुनियासे इस्तीफा देने के बाद के बेरोजगारी के कठिन दिन थे। शाम तो शाम दोपहर भी हंसकार्यालय में बीतने लगी। यादवजी दोपहर को एक पराठा खाते थे। एक पराठा अपने लिए भी आने लगा। फ्रीलांसिंग के सिलसिले में लोगों को फोन करने पड़ते थे। तब मोबाइल का जमाना आम चलन में नहीं था। जाहिर है कि हंसकार्यालय का फोन ही इस्तेमाल होता था। एक दिन तीन चार फोन करने के बाद मैं सुस्ताने के लिए सिगरेट पीने लगा। तभी क्या देखता हूं कि यादवजी ने मोटी वाली एमटीएनएल की फोन डायरेक्टरी निकाल कर मेरे सामने रख दी। मैंने कौतुहलवश पूछा, ‘यह किसलिए?‘ बड़ी सहजता से बोले-इसमें से देख के फोन कर लो।और फिर गूंजा उनका चिरपरिचित बेबाक ठहाका। मैं समझ गया कि वह क्या संदेश देना चाहते हैं। ऐसे हैं यादवजी। असल में यादवजी के साथ अपने रिश्ते को व्याख्यायित करना बहुत कठिन है। वह मेरे जीवन की एक असंभव और इसीलिए ऐद्रंजालिक उपस्थिति हैं। हर दूसरे दिन टेलीफोन पर उनके मुंह से अपने लिए नीच, अधम, पतित, राक्षसआदि शब्द सुने बिना मैं खुद को बड़ा खाली खाली सा महसूस करता था। उनके साथ बैठ कर बतियाने, बहस करने, दारु पीने और गरियाने की जो छूट और खुशी मिलती थी वह आज भी यादों में एक दुर्लभ अनुभव की तरह थरथराती  रहती है। मैं जब जब हताश ,उदास और डिप्रेस्ड होकर उनके पास गया तब तब उनके मजाक, चुटकुले और गालियां सुन कर प्रफुल्ल लौटा। उनके कुंठारहित और खुले व्यक्तित्व के कारण ही यह संभव हो पाया कि इतनी बड़ी दिल्ली में मुझे कभी यह लगा ही नहीं कि मैं अपने कई और समकालीनों की तरह तथाकथित प्रतिष्ठित लेखकों के आगे पीछे घूमूं और खुद को छला हुआ या अपमानित या श्रद्धाविगलित या निरीह महसूस करुं। कलकत्ता, अलीगढ़, भागलपुर कितने ही शहरों में कितनी ही कथा गोष्ठियों में यादवजी का संग साथ मुझे हमेशा उर्जावान बनाए रहा। उनका होना अपने जीवन में ऐसा है जैसा पिता का भी नहीं रहा। आप सोच सकते हैं कि 28-29 साल पुराने रिश्ते में कुछ तो होगा कि मुझे मुंबई आए पूरे 22 साल हो गये मगर इन 22 सालों में एक भी 25 दिसंबर ऐसा नहीं गया जब सुबह दस से ग्यारह के बीच यादवजी का फोन न आया हो। हमेशा एक ही सवाल- कितने साल के हो गये? क्या नई बदमाशियां करनी हैं?
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 12


संक्षिप्त आत्मरचना
12
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

दिल्ली आने के शुरूआती समय और बाद में जो मित्र मेरे जीवन में आये उनकी संख्या बहुत अधिक है। लेकिन जिनकी वजह से मेरे इमोशनल और क्रिएटिव संसार में एक समृद्धि आयी उनमें राजेन्द्र यादव, हरिप्रकाश त्यागी, हरिनारायण, रामकुमार कृषक, वीरेंद्र जैन, महेश दर्पण, डॉ. जगदीश चंद्रिकेश आदि प्रमुख हैं। मेरे जीवन में नंदन जी का योगदान भी महत्वपूर्ण है। इसलिए नहीं कि उन्होंने मुझे नौकरी दी। उनका महत्व इसलिए ज्यादा है क्योंकि उन्होंने अपने एकांत और भावुक क्षणों में अपना दुख, अपना संघर्ष, अपना सुख, अपना स्वाभिमान, अपनी मानवीयता, अपना जज्बा मेरे साथ शेयरकिया--इसके बावजूद कि दफ्तर में वह मेरे बॉस ही नहीं, उम्र में भी, लगभग मेरे पिता के बराबर थे। उनके साथ काम करने के कुछ मौलिक किस्म के दफ्तरी तनाव भी हालांकि साथ-साथ चले, लेकिन उन दबावों ने मुझे पत्रकारिता के प्रति चौकस, सतर्क और सक्रिय भी किये रखा। और राजेन्द्र यादव? यादव जी के साथ अपने रिश्ते को व्याख्यायित करना बहुत कठिन है। यह शख्स मेरे जीवन की एक असंभव और इसीलिए ऐंद्रजालिक उपस्थिति है।  सन् 1978 की एक सुबह मैं दिल्ली में उतरा था। बाईस वर्ष की नन्हीं और कस्बाई उम्र में। भौंचक्का और परेशान। लेकिन लेखक तब तक बाकायदा बन चुका था। तीन कहानियां छप चुकी थीं। उनमें से भी दो कमलेश्वर द्वारा संपादित बड़ी पत्रिका सारिकामें। 13 जून 1978 को सहसा प्रेम विवाह कर लेने के बाद मैं राजकमल प्रकाशन में नौकरी करने दिल्ली आया था। छात्र राजनीति और अपनी पत्नी को देहरादून में ही छोड़ कर। तब राजकमल प्रकाशन की मालकिन शीला संधु हुआ करती थीं जिनका हिंदी लेखकों के बीच भारी दबदबा था। उन दिनों के तमाम बड़े लेखक मेरी मेज के सामने से गुजरते हुए ही शीला जी के केबिन मंे प्रवेश करते थे। उन लेखकों में राजेन्द्र यादव नहीं थे। तभी सोच लिया था कि एक दिन राजेन्द्र यादव की जिंदगी में अपने को दर्ज करना है। मेरी याद्दाश्त बहुत धोखेबाज किस्म की है। तो भी इतना तय है कि राजकमल में नौकरी करने के दौरान तो यादव जी से मुलाकात नहीं हो पायी थी। 31 मार्च 1981को मैंने राजकमल से त्यागपत्र दिया और 2 अप्रैल 1981को  राधाकृृष्ण प्रकाशन ज्वॉइन किया। राधाकृष्ण के नीचे एक घर आगे यादव जी के अक्षर प्रकाशन का दफ्तर था। सन् 1980 में मेरा पहला कहानी संग्रह लोग/हाशिए परप्रकाशन संस्थान से छपा था जिसका कवर हरिप्रकाश त्यागी को बनाना था लेकिन बनाया अवधेश कुमार ने। किताब छपने पर मैंने कॉफी हाउस जा कर हरिप्रकाश को भेंट दी तो उसने किताब दूर फेंक दी। लेकिन बाद में यही हरिप्रकाश मेरे खास दोस्तों में शुमार हुआ और उसी के साथ मैं पहली बार राजेन्द्र यादव जी से मिलने पहुंचा। 7 अगस्त 1982 को मैंने टाइम्स समूह की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमानज्वॉइन की और 10 दरियागंजका नागरिक  कहलाया। यहां हरिप्रकाश त्यागी विज्ञापन डिजाइन करने आता था और वापसी में मुझे अपने साथ स्कूटर पर टांग कर अपने घर ले जाता था। रास्ते में वाइन शॉप पर रुक कर वह व्हिस्की का एक हाफ खरीदता था जो उन दिनों 35 रुपए का मिलता था। यह हाफ हम उसके घर पहुंच कर निपटाया करते थे। एक दिन वह बोला, ‘चलो तुमको यादव जी से मिलवाते हैं और सन् 1982 की एक शाम मैं यादव जी से मुखातिब था। यह पटरंगपुर पुराण इसलिए कि यादव जी के इलाके में निरंतर बने रहने के बावजूद मुझे उन तक पहुंचने में चार साल लग गये। ऐसा था हमारे समय में लेखक का रुतबा और संसार। और यादव जी यकीनन एक रुतबे वाले लेखक थे। लेकिन आपको पता है, यादव जी को कौन सी बात बाकी रुतबेदार लेखकों से जुदा करती है? यादव जी एक ऐसे बड़े लेखक हैं जो दूसरे लेखकों को उनके अपने स्पेस में जीने की आजादी देते हैं। उनके संग साथ रहते रहकर आपको लगता ही नहीं  कि एक छोटा लेखक एक बड़े लेखक के दरबार में दुम हिला रहा है। शायद यही एक मात्र वजह है कि बाकी बड़े लेखकों की तुलना में राजेन्द्र यादव नामक बड़े लेखक के मित्रों की संख्या सबसे ज्यादा और कद्दावर है। उनके मित्रों में बीस से अस्सी वर्ष की उम्र के लेखक शामिल हैं। तो दिसंबर 1986 में चौथी दुनियाज्वॉइन करने तक दरियागंज और अंसारी रोड ही अपना चरागाह बना रहा। इन्हीं दिनों हंसका प्रकाशन हुआ और अपनी ऐतिहासिक प्रेम कहानी खुल जा सिमसिमकमलेश्वर द्वारा संपादित पत्रिका गंगामें छपी। यह कहानी पढ़ कर राजेन्द्रजी ने आग्रह करने पर अपनी एक टिप्पणी भेजी-तुम्हारी कहानी पढ़ने से मेरा एक बहुत बड़ा नुकसान हो गया। हर भूतपूर्व की तरह मैं भी संतुष्ट भाव से सोचे बैठा था कि अच्छी कहानियां तो हमने ही लिखी हैं या आगे लिखेंगे। बाद वाले तो बकवास कर रहे हैं। यह कहानी पढ़ी तो चौंका.... यह क्या ? कहूं कि एक अजीब आश्वस्ति का भाव जागा- कहानियां लिखी जा रही हैं, शायद अधिक विकसित बोध के साथ।एक लंबे पत्र का छोटा सा अंश है यह जो नौ नवंबर को लिखा गया था। इससे पहले 18 अगस्त 1985 को मैंने यादवजी का एक लंबा साक्षात्कार उनके तत्कालीन निवास 103 डीडीए फ्लैट्स हौज खास , नयी दिल्ली में लिया था जिसकी आगे चल कर बहुत चर्चा हुई थी। इसमें यादवजी ने कुछ बेहतरीन किस्म के उद्गार व्यक्त किए थे जो कालांतर में बड़े रचनात्मक, मार्गदर्शक और यादवजी के समय-समाज-साहित्य का प्रतिबिंब बन कर दर्ज हुए। मसलन-लेखक को सर्वोच्च मानने के पीछे एक बड़ा कारण तो यह है कि जो दूसरे नहीं कर रहे , वह मैं कर रहा हूं। लेखक बौद्धिक धरातल पर ही नहीं बल्कि एक व्यापक राष्टीªय-अंतरराष्टीªªय धरातल पर मूव करता है इसलिए उसमें विशिष्ट हो जाने का भाव बहुत स्वाभाविक है। उसमें यह भावना पैदा हो जानी भी स्वाभाविक है कि वह भाव और संवेदना की दुनिया में रहने वाला प्राणी है और इस दुनिया में एक अतिथि बन कर आया है। इसलिए अपने लिए वह एक विशेष तरह का व्यवहार भी चाहता है लेकिन वास्तविक जीवन में यह व्यवहार उसे मिलता नहीं है। नहीं मिलता है इसलिए कुंठा पैदा होती है। वह अपने को और विशिष्ट बनाता है और अपने आसपास की खाई को और चौड़ा करता जाता है। नतीजा यह होता है कि वह और और अकेला होता जाता है।
      हमारे बाद कोई त्रयी क्यों नही बन सकी? क्योंकि इतिहास में एक बार जो घटना हो गयी उसको उसी तरह से रिपीट करने की कोशिश होती है तो वह ट्रेजेडीबनती है। स्थितियों का कुछ इस तरह से संयोग होता है कि कुछ लोग आपस मंे ही जुड़ जाते हैं। हम लोगों  में (राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव ) शायद यह हुआ समान तरह के लगावों की वजह से। हम तीनों निम्न मध्य वर्ग से आये थे और हममें बहुत सी बातें समान थीं। मैं व्यक्तिगत रुप से महसूस करता हूं कि इस त्रयीने हम तीनों को सृजनशील बनाए रखा। आज हम सब जिस रचनात्मक माहौल के लिए तरसते हैं वह रचनात्मक माहौल हम तीनों एक दूसरे के लिए संभव बनाते थे। हम ने एक दूसरे की चुनौती में कहानियां लिखीं। यह उसका बहुत ही सकारात्मक बिंदु है।
      पत्नी को लेखिका नहीं होना चाहिए। जो पत्नी लेखिका नहीं होती उसे लगता है कि उसका पति कोई महान कार्य कर रहा है जिसके कारण वह बड़ी छूट देती है, बड़ा लिहाज करती है और पति की ओर विशेष ध्यान देती है लेकिन अगर पति और पत्नी दोनों लेखक हों तो पति चूंकि लेखन के महत्व को समझता है इसलिए वह पत्नी के लेखन की अनुकूल स्थितियां बनाने में लगा रहता है। नतीजे में होता यह है कि घर-गृृहस्थी बिगड़ने लगती है। एक ही प्रोफेशन के लोगों में हमेशा यह होता है कि एक आदमी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। होना तो वही चाहिए जो रेणु को मिला। रेणु की पत्नी नर्स थी और लेखक की पत्नी के लिए नर्स होना बहुत जरुरी है।
क्रमशः

Saturday, February 8, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 11


संक्षिप्त आत्मरचना
11
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और नागार्जुन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। चारों का अपना-अपना महत्व और आभा मंडल है, लेकिन बाबा नागार्जुन इस मायने में अद्वितीय हैं क्योंकि वे अपने रहन-सहन और आचरण से भी सड़क पर खड़े फकीर जैसे नजर आते थे। वह मुझसे भी ज्यादा मेरी पत्नी ललिता से स्नेह करते थे। ललिता भी उनकी कुछ ज्यादा ही देखभाल में जुटी रहती थी। कभी उनका मुंह साफ करवा रही है, कभी उनका गमछा धो रही है, कभी उनके लिए चाय बना रही है तो कभी पकौड़ियां तल रही है। कभी-कभी वह बाबा का हाथ पकड़ कर एकदम सुबह उनको पूरे सादतपुर का चक्कर भी लगवा आती थी। कभी सुबह बाबा घर आते और आदेश देते ललिता पोहा बनाओ। बाबा सो जाते और ललिता पोहा बना देती। बाबा उठते और कहते पोहा नहीं हलुआ खाने का मन है। ललिता फिर किचन में चली जाती और इस प्रकार नाश्ते में पोहा तथा हलुआ दोनों बन जाते। एक बार ललिता के कहने पर बाबा हमारे मुंबई स्थित घर पर भी रहने आए थे। तब पत्रकार मित्र अजय ब्रह्मात्मज के एक फिल्म निर्देशक रिश्तेदार ने बाबा की एक दिन की दिनचर्या पर डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी। फिल्म बनने के दौरान बाबा का बाल सुलभ उत्साह देखते बनता था। दरअसल बाबा के भीतर एक अबोध बच्चा हमेशा मौजूद रहता था। यही कारण था कि उम्रदराज होने के बाद भी जीवन, जगत और मनुष्य के कार्य व्यापार को लेकर वह एक सहज जिज्ञासा से भरे रहते थे। दिल्ली में एक बार हैजा फैल गया था तब मैंने बाबा की मशहूर कविता खिचड़ी विप्लव देखा हमनेकी तर्ज पर हैजा उत्सव देखा हमनेशीर्षक से एक संपादकीय चौथी दुनियामें लिखा था। बाबा कई दिनों तक उस संपादकीय को पढ़ कर मजा लेते रहे। वह जनकवि इसलिए नहीं हैं कि उनके सरोकार जनपक्षीय हैं। वह अपने जीवन की एक-एक भंगिमा और सांस के साथ इस देश के सामान्य नागरिक के संघर्षशील और बदहाल जीवन से बंधे हुए थे और उनका यह बंधना एकदम सहज था, खरा था। 
क्रमशः

Monday, February 3, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 10

संक्षिप्त आत्मरचना
10
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

एक अप्रैल को मैं बेरोजगार रहा। मेरा उपन्यास राधाकृष्णसे छप रहा था - समय एक शब्द भर नहीं है।उसी की प्रगति को जानने मैं राधाकृष्ण के मालिक अरविंद कुमार से मिलने गया। बाचतीच में यह बात खुल गयी कि मैं राजकमल से इस्तीफा दे चुका हूं। अरविंद जी ने कहा, ‘हमें ज्वाइन कर लो।मैंने पूछा, ‘कब से?‘ उन्होंने कहा, ‘आज से ही।मैंने कहा, ‘कल से आ जाऊंगा।और 2 अप्रैल 1981 से मैं राधाकृष्णका मुलाजिम हो गया--नौ सौ रुपये महीने पर। 4 अगस्त को ललिता सफदरजंग अस्पताल में एडमिट हुई। दूसरी संतान को जन्म देने के लिए। उसे भर्ती कराकर मैं घर लौटा तो दिनमानसे नंदन जी का खत आया मिला कि तत्काल मिलो। मैं उल्टे पांव दिनमानपहुंचा। वहां सारिकामें बलराम के पास जाकर बैठा और नंदन जी को अपने नाम की चिट भिजवा दी। बलराम मुझे देखकर मुस्कराया और बोला, ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार, दीवारेदर को गौर से पहचान लीजिए।थोड़ी देर में नंदन जी ने बुला भेजा और बोले, ‘7 अगस्त से दिनमानज्वाइन कर लो। फिलहाल प्रूफरीडर का पद है। बाद में उप-संपादक के लिए प्रयत्न करूंगा।मैं उनका आभारी होता हुआ घर लौटा और अस्पताल पहुंचा, तब तक ललिता दूसरे बेटे राहुल को जन्म दे चुकी थी। साल-भर प्रूफ रीडरी करने के बाद अंततः मैं दिनमानमें उप-संपादक हुआ। दिनमानके अंतिम दिनों में लेखक मित्र वीरेन्द्र जैन के सहयोग और आग्रह के कारण मैंने भी दिल्ली के सादतपुर इलाके में एक सौ गज का प्लॉट खरीद कर उस पर छोटा सा घर बना लिया था। सादतपुर जैसे छोटे से इलाके को पूरे देश के रचनाकार इस कारण जानते थे क्योंकि वहां पर बाबा नागर्जुन जैसा बड़ा कवि, रमाकांत जैसा बड़ा कहानीकार और हरिपाल त्यागी जैसा बड़ा चित्रकार रहता था। इनमें से रमाकांत और बाबा नागार्जुन अब नहीं हैं। और सादतपुर को अब नागार्जुन नगर कहा जाने लगा है। अपने आप में यह एक बेहद गौरवान्वित कर देने वाला एहसास है कि मैं उन सौभाग्यशाली लेखकों में से हूं जो जनकवि बाबा नागार्जुन के समय में रहते थे। सादतपुर पहुंचकर मैं नागार्जुन के समय में ही नहीं, उनके सान्निध्य में भी उपस्थित हो गया। बाबा का आना जाना हर घर में था-साधिकार। कहीं चाय पीते थे, कहीं पकौड़ी खाते थे। कहीं भोजन करते थे। कहीं पुराने दिनों की जुगाली करते थे। किसी घर में अपनी किसी विशेष रचना से जुड़े संस्मरण को शब्द दे रहे होते थे। रहते सादतपुर में थे लेकिन देश के कई लेखकों के घरों में उनका एक जोड़ी कुर्ता-पायजामा बकायदा तह कर रखा रहता था। क्या पता कब किसके घर आ जाएं। यूं ही नहीं कोई जनकवि बन जाता। मूड में आने पर कहते थे - लेखक को जनता के बीच जासूस की तरह रहना चाहिए। एक बार एक बड़ा पुरस्कार मिलने पर मैं उनका इंटरव्यू ले रहा था तो बोले -जब न मुंह में दांत है न पेट में आंत, तब पुरस्कार लेकर क्या करना है।पुरस्कार युवा लोगों को मिलना चाहिए। पुरस्कारों को लेकर उनकी स्पष्ट राय थी कि यह जनता का पैसा है इसलिए पुरस्कार लेने में कोई हर्ज नहीं है। सादतपुर में जिन दोस्तों के साथ अपनी आत्मीयता ने आकार लिया उनमें महेश दर्पण, रामकुमार कृषक, वीरेन्द्र जैन, विजय श्रीवास्तव, सुरेश सलिल प्रमुख हैं। ये सब आज भी मेरे खास दोस्तों में शामिल हैं। हां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि रामकुमार कृषक से मेरी दोस्ती राजकमल के दिनों में ही हो गई थी। हम दोनों वहां काम करते थे और दोपहर का भोजन अक्सर साथ करते थे। सादतपुर आने के बाद मेरी पत्नी ललिता और कृषक जी की पत्नी विमला में भी गहरी दोस्ती हो गई और इस प्रकार हम पारिवारिक मित्र बन गए। यहां विभूति नारायण राय का जिक्र करना भी आवश्यक है। उनके साथ मेरा आत्मीय रिश्ता अनायास ही विकसित होता चला गया। बहुत कम लोगों को यह मालूम था कि मैं कविताएं भी लिखता हूं। लेकिन राय साहब ने अपनी पत्रिका वर्तमान साहित्यमें मेरी अनेक कविताएं प्रकाशित कर के मेरा कवि रूप भी जग जाहिर किया। जिन दिनों मैं साप्ताहिक चौथी दुनियामें मुख्य उपसंपादक था उन्हीं दिनों हमारी शादी की दसवीं सालगिरह आई। यह 13 जून 1988 का दिन था। विभूति नारायण जी को यह बात मालूम थी। वर्षगांठ से एक दिन पहले सुबह-सुबह उन्होंने यह सरप्राइज दिया कि हमारी दसवीं सालगिरह का जश्न गाजियाबाद के एक पार्टी हॉल के विशाल और खुले लॉन में मनाया जाएगा। इसके लिए उन्होंने चौथी दुनियाके पूरे स्टाफ को गाजियाबाद आमंत्रित किया था। यह पार्टी शानदार ढंग से मनी जिसकी स्मृतियां आज भी चेतना में कौंधा करती हैं। उन दिनों राय साहब गाजियाबाद के एस.पी. हुआ करते थे। तब से लेकर अब तक जबकि वह वर्धा स्थित महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, हमारी आत्मीयता न सिर्फ कायम है बल्कि निरंतर मजबूत हुई है। उन्होंने जब भी कोई बड़ा आयोजन किया अपने को जरूर बुलाया। कविता से मेरा नाता केवल पढ़ने भर का है। लेकिन जब वर्धा में राय साहब ने केदार, शमेशर, अज्ञेय और नागार्जुन की जन्मशती पर आयोजन किया तो भी अपने को वहां बुलाया। यह है उनका प्रेम। शायद इसलिए कि वह जानते थे कि बाबा नागार्जुन से हमारे पारिवारिक रिश्ते रहे हैं। ऐसी नजरें हर किसी की नहीं होतीं।

क्रमशः

Saturday, February 1, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 9

संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


साढ़े तीन सौ रुपये महीने से शुरू होकर सवा आठ सौ रुपये महीने तक पहुंची मेरी राजकमल की नौकरी के सवा तीन साल संघर्ष, यातना, कठोरतम परिश्रम और लेखकीय प्रतिकूलताओं के ठोस अंधेरे का एक ऐसा सफर है जो आज कल्पनातीत लगता है। राजकमल की नौकरी के अनुभवों को आधार बनाकर जब मैंने अपना लघु उपन्यास आदमीखोरलिखा और उसका धारावाहिक प्रकाशन रविवारसाप्ताहिक में शुरू हुआ, तो राजकमल की मैनेजिंग डायरेक्टर श्रीमती शीला संधु (जो मुझे बेटा कहकर संबोधित करती थीं) के सभी संवेगात्मक तंतु जैसे यकबयक सूख गये। यह बहुत स्वाभाविक भी था और इसे लेकर मेरे मन में कोई शिकवा भी नहीं है। लेकिन मेरी एक दिक्कत और कमाजेरी शुरू से रही है कि और चाहे कुछ हो, लेकिन अगर मेरी संवेदनात्मक दुनिया पर जरा भी प्रहार होता है, तो मैं समूचा का समूचा सिर्फ हृदय में बदल जाता हूं और विवेक उस क्षण विशेषमें मेरे यहां तत्काल अनुपस्थित हो जाता है। शाली जी ने तब एक ऐसा वाक्य कहा, जो उन्होंने न कहा होता तो शायद मैं आज भी अपने कई मित्रों की तरह राजकमल में ही नौकरी कर रहा होता और खुद को आज की अपेक्षा ज्यादा असंभव और अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों में घसीट रहा होता। आवेश में शीला जी केे मुंह से निकल पड़ा, ‘अगर तुम कहीं और होते तो किक आउटकर दिये जाते।मैं सन्न रह गया। जिस स्त्री ने मेरा दिल्ली में रहना संभव किया हुआ था, जिसने किराये का मकान न मिलने तक अपना गेस्ट हाउसमेरे लिए खोल दिया था और जो ललिता को बहूकहकर संबोधित करती थी, उसके इस रूप ने मेरे मन की कोमलतम दुनिया को सहसा ही एक भांय-भांय करते रेगिस्तान में बदल दिया। यह मेरी निष्ठा, प्रतिबद्धता और संवेदना का संपूर्ण अस्वीकार ही नहीं, मेरी श्रद्धा का तिरस्कार भी था। मैं तत्काल उनके केबिन से वापस लौटा, अपना इस्तीफा लिखा और उनके पास पहुंचवा दिया। यहां यह श्रेय उन्हें जरूर देना होगा कि इस्तीफे के बाद उन्होंने अपने शब्दों की भयावहता को रियलाइजभी किया और मुझे साग्रह और साधिकार रोकने की भी कोशिश की, लेकिन तब तक विवेक मुझे छोड़कर जा चुका था और मेरी भावनाओं की दुनिया तहस-नहस हो चुकी थी। मैंने राजकमल छोड़ दिया। यह 31 मार्च 1981 का दिन था और मैं दिल्ली में बेरोजगार था। तब हम दक्षिण दिल्ली के राजनगर इलाके में आठ बाई आठ फुट के एक तंग कमरे में रहते थे। हम यानी मैं, ललिता, मेरा बेटा आशू और ललिता के गर्भ में उपस्थित दूसरा बेटा। मैं दिन-भर यूं ही भटकता रहा और शाम को सीमापुरी के ठेके पर चला गया। वहां मैं रात के ग्यारह बजे तक शराब पीता रहा और इतना भावुक होने के लिए खुद को लगातार कोसता रहा। रात को बारह-साढे़ बारह बजे मैं घर में घुसा--टूटा, थका, क्षत-विक्षत और शराब के नशे से आक्रांत। वह रात मेरे जीवन की बहुत गलीज, नारकीय और भीतर तक हिला देने वाली रात है। मैंने ललिता को बताया कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। पहली बार वह डर गयी। असुरक्षा, अभाव और भटकाव का जो दर्द उसके सीने में उठा, उसने सहसा ही उसे एक आम भारतीय स्त्री में बदल दिया और वह मेरी उस भावुकता, जिसे वह प्यार करती थी, को कोसने लगी। बात बढ़ती गयी और एक-दूसरे के प्रति विरोध, अविश्वास और अवज्ञा का भाव भी उग्र होता गया। नतीजा संहार में निकला। आज भी मैं इस अपराधबोध से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया हूं कि उस रात मैं ललिता पर हाथ उठा बैठा था।

क्रमशः