संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
मुझे लगता है कि पहली कहानी पहले प्यार की तरह कीमती,
अनूठी और रोमांचकारी
होती है। ‘लोग/हाशिए पर‘ मेरे लिए ऐसी ही है। इस कहानी के बाद तो साहित्य की पगडंडी पर मेरा सफर चल निकला
जो थमता-लड़खड़ाता आज भी जारी है। साहित्य का सर्वाधिक सकारात्मक पहलू यही है कि यहां
लेखक कभी रिटायर नहीं होता। लेखक कभी भूतपूर्व नहीं कहलाता। हां, अभूतपूर्व जरूर कहलाता है।
1977 में ‘सारिका‘ में मेरी एक कहानी छपी थी - ‘आयाम‘। कहानी पढ़कर हलद्वानी से किसी ललिता बिष्ट ने एक भावुक-सा खत
मुझे लिखा। प्रेम का इतने दिनों से बाधित सोता जैसे भल-भल कर फूट उठा। दोनों तरफ से
पत्र लंबे होते चले गये और अंततः 13 जून 1978 की एक सुबह मैंने पाया कि ललिता मुझे
सोते से जगा रही है और सूचित कर रही है कि वह अपने पिता के घर को छोड़ आयी है और अब
कभी वापस नहीं जायेगी। हमने उसी दिन विवाह किया और अगले रोज पिता से सुना कि अगर जरा
भी शराफत बाकी है, तो 24 घंटे के भीतर घर छोड़ दो।
यानी संघर्ष फिर सामने था। पहले से कहीं अधिक मारक और
हाहाकार-भरा। ललिता ने कहा, ‘प्याज-रोटी भी खिलायेगा, तो जीवन गुजार लूंगी‘। उसे सुन मैं लगभग रो ही
पड़ा।
करीब पंद्रह दिन हमने राजपुर रोड स्थित भीमसेन त्यागी
के मकान में गुजारे। वह सुदर्शन चोपड़ा के देहांत पर सपरिवार दिल्ली चले गये थे। काफी
समय बाद लौटे, तो साथ में संदेश भी लाये कि फौरन दिल्ली जाकर राजकमल प्रकाशन ज्वाइन कर लूं। और
इस तरह मैं दिल्ली आ गया--राजकमल की साढ़े तीन सौ रुपये महीने की नौकरी पर। ललिता कुछ
दिन मां के साथ रही फिर अपनी मां के पास चली गयी। नवंबर 1979 में मैं उसे भी दिल्ली
ले आया। दिल्ली में शुरू के काफी समय तक सुरेश उनियाल की छत, संरक्षण और भावनात्मक सुरक्षा
मिली जिसने लड़ने और जीने के हौसले को जिलाये रखा।
क्रमशः
Sundar he. Vanguard ka jikr bhi shayad ho.
ReplyDeleteतुम्हारी कथा में मेरा काल-खंड आ पहुंचा...! उस समय की धमक सुन रहा हूँ, उन क्षणों को रेशा-रेशा बांटकर पहचान रहा हूँ और संघर्ष-भरे उन दिनों की तुम्हारी परेशानहाल सूरत याद कर रहा हूँ, जो आज की शक्ल से बहुत मेल नहीं खाती! पहली-पहली बार ललिताजी को मैंने राजकमल में ही देखा था... तुम्हें याद है न वो बेबसी से भरा दिन...!
ReplyDeleteAchchha,Lalita Bhabhi ne "jeevan bhar" ki pyaz maangi? Tabhi dilli me iske bhav...
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