संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
जब मैं वयस्क नहीं था, शहर (मुजफ्फरनगर) की हर सुंदर लड़की
से प्रेम करने को व्याकुल रहता था (यह अलग बात है कि शहर में सुंदर लड़कियां थी ही नहीं)
और शहर के बारे में अपने से तिगुनी उम्र वाले एक परिचित दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक
का यह शेर मैं हर वक्त गुनगुनाता रहता था-‘न सूरत, न सीरत, न इल्मो हुनर/अजब चूतिया शहर है मुजफ्फरनगर‘। ‘सारिका‘ नामक पत्रिका को एक आतंक
की तरह देखता-छूता था और अपने सबसे पुराने दोस्त राजकुमार गौतम के साथ लेखक बनने के
ख्वाब देखा करता था, नरक ने उससे पहले ही मेरे जीवन में प्रवेश कर लिया था। राजकुमार का जीवन बदहाल
होने के बावजूद आकस्मिकताओं से भरा हुआ नहीं था, लेकिन मेरे यहां हर कदम पर हादसे
साथ चलते थे, वह भी अनपेक्षित। इन अनपेक्षित और आकस्मिक हादसों ने मुझे दुविधाग्रस्त,
आशंकाग्रस्त,
भयभीत, अराजक, शंकालु, भावुक, संघर्षशील और भगोड़ा एक साथ
बनाया। क्षण में जीने का एक सनकभरा व्यवहार भी - बिना क्षणवादी, अस्तित्तववादी साहित्य पढ़े
इसीलिए मेरी जीवन-शैली में चुपचाप प्रविष्ट हुआ।
डैडी पहाड़ पर थे - जोशीमठ में, हम मुजफ्फरनगर के एक ऐसे
तंग और सीलन-भरे कमरे में, जिसके बाहर नाली में कीचड़ और मल-मूत्र बहता रहता था और हमें
हर समय दुखी और पीड़ित रखता था। उस कमरे में हम सोते भी थे, रसोई भी बनाते थे, नहाते भी थे, कपड़े भी धोते थे और पढ़ते
भी थे। मैं परिवार का सबसे बड़ा बेटा होने का अभिशाप लिए डैडी द्वारा भेजे पैसों से
घर का खर्च भी चलाता था, अपनी पढ़ाई भी करता था, अपने छोटे भाइयों को अपनी पीठ पर
लादकर बड़ा करते-करते मैदान में खेलते अपने हमउम्र साथियों को क्रिकेट भी खेलते देखा
करता था और उनके तथा मां के लिए खाना भी पकाया करता था। खाना यानी सबके लिए दो-दो परांठे
और एक-एक चाय, या खिचड़ी या गुड़ और चना। मां स्थायी रूप से बीमार रहती थी, अपाहिज थी। जब मैं उसके गर्भ
में था, वह
छत से कूदकर आत्महत्या की कोशिश में अपना पांव कूल्हे पर से तुड़ा बैठी थी। बाप ने बड़े
प्रेम से आठ बच्चे पैदा किये। एक रहा नहीं और एक बाद में चलकर पागल हो गया और अभी तक
अपने जीवन को अभिशाप की तरह जी रहा है। मुजफ्फरनगर में हमने शायद तीन या चार वर्ष दुःस्वप्न
की तरह गुजारे-अपनी बुआ के संपन्न और अपने चाचा के अपेक्षाकृत सुखी जीवन के बरक्स,
लेकिन अजनबियों की
तरह। इसने रिश्तों के प्रति मेरे जीवन को संदेहों से भर दिया। किसी लड़की से प्रेम करने
और उसके साथ अपने सुख-दुख (सुख तो थे ही नहीं) ‘शेयर‘ करने का भाव भी किसी जुनून की तरह
इन्हीं दिनों मेरे मन में कद्दावर हुआ। इन्हीं दिनों लेखक बनने की आकांक्षा भी पैदा
हुई। इन्हीं दिनों क्रिकेट को लेकर एक गहरी नफरत ने मेरे मन में जन्म लिया। आज भी अगर
क्रिकेट से मुझे एजर्ली है तो संभवतः इसी कारण कि जब मैं उसे खेलना चाहता था,
नहीं खेल पाया। सतत
अभाव और वंचना ने संपन्न जीवन के प्रति एक प्रतिकार से भरा उन्हीं दिनों और उन्हीं
दिनों मन में यह भावना विकसित हुई कि लेखक बनकर मैं हर चूतिये से ऊपर उठ सकता हूं।
राजकुमार ने ‘अंतिम आशीर्वाद‘ और मैंने ‘आराधना‘ तथा ‘राखी
का प्रतिदान‘ जैसी फिल्मी, बचकानी और लिजलिजी भावुकता से भरी कहानियां उन्हीं दिनों लिखीं और खुद को लेखक
होने के गर्व में गर्क किया। तब मैं पंद्रह-सोलह का और राजकुमार 19-20 का हुआ करता
था। उन्हीं दिनों किसी काम से शामली (मुजफ्फरनगर का एक कस्बा) जाना हुआ और वहां मैं
अपनी सगी बुआ की बेहद खूबसूरत लड़की को दिल दे बैठा। उसके होंठों, उसके चलने, उसके सोने और उसके होने पर
मैंने बीसियों कविताएं लिखीं। बाद में उसका विवाह हो गया और मैं अपना टूटा हुआ दिल
लेकर शायरी पढ़ने में गर्क हो गया। तब अपनी बुआ की लड़की से प्रेम करते रहकर,
मैं इस अहसास में भी
डूबा रहता था कि अगर हम विवाह कर लें तो इस पारंपरिक और दकियानूसी समाज में क्रांति
हो जायेगी। अमृता प्रीतम के रोमानी संसार से छूटकर प्रेमचंद की तपती हुई जमीन पर कदम
रखा इन्हीं दिनों। आज भी मैं मानता हूं कि गुलशन नंदा और प्रेम वाजपेयी टाइप के उपन्यासों
और सृजनात्मक साहित्य के बीच अमृता प्रीतम एक सीढ़ी का काम करती हैं। फिर मैं देहरादून
आ गया - कुछ अधिक यथार्थवादी दृष्टि और अध्ययन की अपेक्षाकृत अधिक संपन्न पूंजी के
साथ। इस बार डैडी भी साथ थे। मुझसे तुरंत बाद वाला भाई वीरेंद्र यहीं पागल हुआ। यहां
रहने के लिए तो सरकारी क्वार्टर था, लेकिन डैडी के फक्कड़पने के कारण रहने और जीने की स्थितियां
अभी भी विपन्न और दुर्घटनाओं-भरी थीं। शराब, गोश्त और जुआ डैडी को हमारे दादा
से विरासत में मिला था। आज यह सोचकर गर्वित होता रहता हूं कि जुआ तो दूर, ताश का एक भी खेल मैं नहीं
जानता।
क्रमशः
पढ़ते हुए अच्छा लग रहा है। ऐसा लगता है कि कहीं-न-कहीं हमारे बीच की ही आपबीती बयां की जा रही है।
ReplyDelete"शहर से उठता आदमी " पढ़ रहा हूँ. मुजफ्फरनगर के ही एक कस्बे " मीरापुर " का हूँ .( विष्णु प्रभाकर की जन्मस्थली ). जब कोई आत्मकथा अपनी जीवनी सी लगने लगे तो आदमी पढ़ेगा ही.
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