संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
मैंने अपनी इस आत्मकथात्मक रचना का
शीर्षक हिंदी के बहुत बड़े और अप्रतिम कवि-कथाकार गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध
कहानी से उधार लिया है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि मुक्तिबोध मेरे सर्वप्रिय लेखक
हैं। दूसरा यह कि मैं स्वयं भी तो सतह से उठता हुआ आदमी ही रहा हूं। मुझसे कहा गया
है कि मैं उस नरक को उद्घाटित करूं जहां से मेरी रचनाओं ने जन्म लिया है। ‘नरक‘ शब्द आग्रह करने वाले का
नहीं है लेकिन मेरे संदर्भ में यही वह शब्द है जिससे गुजरकर ही रचने की मेरी कोशिशें
ठीक-ठीक समझी जा सकती हैं। एक ऐसे समय में, जब लोग ‘उजला-उजला‘ ही प्रदर्शित करने की होड़
में मुब्तिला हों, नरक का उद्घाटन ईमानदार भले ही हो, पर वह अकेले पड़ जाने की खतरनाक शुरूआत भी है।
मैंने क्या जिया? एक ऐसे आदमी के लिए,
जो घटनाओं और स्थितियों
को न तो डायरी में दर्ज कर पाता हो और न ही अपनी स्मृति में सिलसिलेवार संजोकर रख पाता
हो, ठीक-ठीक
यह ब्योरा दे पाना कठिन है कि उसने रचने और जीने के पिछले तमाम वर्षों में क्या-क्या
जिया, क्या
सोचा, क्या
चाहा, कैसे
रहा और कब, किस क्षण, किस तरह ‘रिएक्ट‘ किया। एक स्थूल-सा बिंब यह बनता है कि एक ठोस, अंधकारमय, यातनादायी, दुश्ंिचताओं और दुविधाओं
से भरा हुआ खौफनाक नरक मेरे साथ-साथ चला। मुझे लगता है कि रचने वालों की जन्मभूमि ऐसी
ही हुआ करती है--बुरी, बदहाल, बदशक्ल, अक्षम, असुरक्षित और बेहद मजबूर।
क्रमश:
बधाई हो...
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