संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
मुंबई जनसत्ता में कटे दस वर्ष (1990 से 2000) मेरी पत्रकारिता
का सबसे बेहतरीन काल है। मुंबई में न सिर्फ मैं अपने पैरों पर जमकर खड़ा हुआ,
खुद का निवास स्थान
बनाया, बच्चोें को पढ़ा-लिखा कर उनके पैरों पर खड़ा किया। और जाहिर है कि यह सब कुछ इसलिए
हासिल हुआ क्योंकि प्रभाष जोशी जैसे प्रखर और दूरंदेशी पत्रकार संपादक की कृपा से मैं
फिर से रोजगार प्राप्त हो गया था। प्रभाष जी का मेरे जीवन पर यह अविस्मरणीय अहसान है।
उनके न रहने पर मैं खुद को निजी रूप से अनाथ जैसा महसूस करता हूं। उन्हें शत-शत नमन।
यहां ‘सबरंग‘ के बारे में अपने देहरादून के लेखक दोस्त सूरज प्रकाश,
जो इन दिनों मुंबई
में ही हैं, के संस्मरण का एक अंश यहां रेखांकित करना भी मौजूं होगा। वह लिखते हैं -‘इस 32 पेजी पत्रिका
‘सबरंग‘ ने मुंबई में इतिहास
रचा। सात-आठ हजार से शुरू करते हुए इसकी प्रतियों की संख्या साठ हजार तक पहुंची। लगभग
दस बरस में ‘सबरंग‘ के कई विशेषांक निकले। दो हजार से अधिक कविताएं, सात सौ से अधिक कहानियां, कवर स्टोरीज,
कॉलम और इतर सामग्री
छपी। ‘सबरंग‘ के लिए तब हर घर में रविवार को छीना झपटी होती थी। धीरेन्द्र ने ‘सबरंग‘ को स्टार बना दिया
और ‘सबरंग‘ ने बदले में धीरेन्द्र
अस्थाना, फीचर एडीटर को स्टार बनाए रखा।‘
यहां से हम वापस दुर्दिनों में लौटते हैं। शायद लेखक और बुरे
दिनों का चोली दामन का साथ है। फरवरी 1990 में मुंबई जनसत्ता के सभी पत्रकारों को कंप्यूटर
सिखाया जा रहा था ताकि जनसत्ता की टीम भी आधुनिक कील कांटों से लैस हो सके। सभी लोगों
में भारी उत्साह था। सलेक्ट ऑल, कंट्रोल, कॉपी, पेस्ट, रिफ्रेश, कैप्स लॉक, पेज अप, पेज डाउन, डीलिट -‘एक नयी दुनिया खुल जा सिमसिम की तरह खुल रही थी। कि तभी एक दोपहर,
दफ्तर पहुंचने पर पता
चला कि जनसत्ता का मुंबई संस्करण बंद कर दिया गया है। उन्हीं दिनों मुंबई के सुदूर
उपनगर मीरा रोड में अपना खुद का फ्लैट लोन पर खरीदा गया था। दोनों बच्चे पढ़ रहे थे।
और संघर्ष फिर सामने खड़ा था। दुख हंस रहा था, यह कहते हुए, ‘सुख तुझसे होड़ है मेरी।‘ और इसके बाद 20 अप्रैल
2000 को लगभग पच्चीस पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया। जनसत्ता में दस वर्ष पूरे
होने से ठीक दो महीने पहले। फिर पूरे दस महीने लगातार बेरोजगारी रही। मार्च 2001 में
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह के प्रयत्नों और सांसद-पत्रकार राजीव शुक्ल की पहल से दैनिक
जागरण में एसोसिएट एडीटर की नौकरी मिली और बंदा फिर दिल्ली। कुछ समय जागरण की राजनैतिक
पत्रिका ‘उदय‘ देखी, बाद में महिला पत्रिका ‘सखी‘ संभाल ली। अनेक दोस्तों ने पत्र लिख कर पूछा, दिल्ली के दुर्दांत
दिनों पर ‘गुजर क्यों नहीं जाता‘ जैसा बेबाक उपन्यास लिखने के बावजूद वापस दिल्ली में रहना कैसे
संभव हो रहा है? लेकिन वह दिल्ली में रहना कहां था? पूरे दो साल गर्दन झुका कर सिर्फ काम ही तो किया। इतवार के दिन
भी। महीने में एक बार नोएडा से प्रेस क्लब जाने का नियम बनाया था। उस दिन जो लेखक मिल
गया वही अपना सांस्कृतिक उत्सव हो जाता था। इस बार के दिल्ली प्रवास में कई नए लेखक-पत्रकार
जीवन से जुड़े। इनमें अजीत राय, गीता श्री, अनंत विजय, इष्टदेव प्रमुख रहे। हालांकि अजीत राय बहुत वर्ष पहले हमारे
मुंबई के चारकोप वाले किराए के घर में आ चुके थे, लेकिन गहरी घनिष्ठता उनके साथ इस बार के दिल्ली
प्रवास में हुई। मैं जब-जब नोएडा के सेक्टर-12 के अपने किराए के घर में दही वाला चिकन
बनाता था तो उस रात अजीत राय अनिवार्य रूप से मेरे मेहमान होते थे। उनसे मैं अक्सर
कहता था कि मुझे दिल्ली में इस बार मजा नहीं आ रहा है। जब भी मौका मिलेगा मैं मुंबई
के लिए निकल लूंगा। उधर मुंबई में अपना घर भी खंडहर हो रहा था जबकि दिल्ली में सादतपुर
वाला घर बिक चुका था। तभी राष्ट्रीय सहारा के संपादक गोविंद दीक्षित का बुलावा आया।
मिलने पर उन्होंने सहारा ज्वॉइन करने का ऑफर दिया और वह भी मुंबई के ब्यूरो चीफ के
बतौर। दरअसल वह ‘सहारा समय‘ नाम से एक 48 पन्नों का शानदार रंगीन फुल साइज अखबार लेकर आ रहे थे। चुनौती छोटी
नहीं थी। 48 में से कुल 12 पन्ने मुंबई से उपलब्ध कराने थे, वह भी बिना नियमित स्टाफ के। पर मुंबई तो
अपनी कर्मस्थली थी। 1 अप्रैल 2003 को सहारा ज्वाईन किया और 4 मई को पूरा परिवार फिर
से मुंबई लौट आया। पूरे दो साल का जला वतन बिता कर।
क्रमशः
कितने सर्पिल, टेढ़े-मेढ़े और संघर्षों से भरे रास्ते पर चलकर पहुंचा है काफिला मुकाम पर, अब समझ सका...'कितनी नावों में कितनी बार की तरह...!
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