संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
10 मई 2003 को ‘सहारा समय‘ का पहला अंक भव्य स्तर पर लांच हुआ और उसके बाद आने वाले समय
में उसकी ऐतिहासिक टीम ने देश में झंडे गाड़ दिए। कौन नहीं था ‘सहारा समय‘
में? डॉ. नामवर सिंह,
कुमार आनंद,
मंगलेश डबराल,
धीरेन्द्र अस्थाना,
अरिहन जैन,
परशुराम शर्मा,
मनोहर नायक,
चंद्रभूषण,
संजय कुंदन,
विमल झा, कृपाशंकर चौबे,
मनोज चतुर्वेदी। लगभग
चौथाई जनसत्ता ही बटोर लाये थे गोविंद जी ‘सहारा समय‘ में। अखबार सुपरफास्ट गति से दौड़ना ही था। क्या क्या और कैसे
कैसे तो फीचर नहीं लिखे उन दिनों बंदे ने। लगभग तीन किताबों लायक फीचर तो लिखे ही होंगे।
अफसोस। कुल दो ढाई वर्ष का जीवन जीकर ‘सहारा समय‘ बंद हो गया। फिर से लौटे स्वर्ण काल को फिर कोई कोबरा डस गया।
दो ही विकल्प सामने थे। या तो मैं डेली पेपर के लिए सिनेमा की रिपोर्टिंग करूं या इस्तीफा
दे दूं। सन 2005 के उस उत्तरार्द्ध में अपने जीवन का उत्तरार्द्ध भी यथार्थ बन सामने
था। उम्र का पचासवां वर्ष शुरू होने को था। कौन नौकरी देता? तय हुआ कि मन को मार कर रिपोर्टिंग में लुढ़क
जाना है।
और यही वह समय तथा क्षण है जब पचास साल के इस स्ट्रगलर के जीवन
में प्रदीप तिवारी नाम के एक कवि-फिल्म पत्रकार दोस्त की एंट्री होती है। जब वह बनारस
में थे तब मैंने दैनिक जागरण की साहित्यिक पत्रिका ‘पुनर्नवा‘ में उनकी कविताएं प्रकाशित की थीं। वह बसने-जीने
के लिए मुंबई आ पहुंचे थे। वह दफ्तर में मुझसे मिलने आये तो मैंने उनके सामने समस्या
रखी कि फिल्मी पत्रकारिता करनी है। वह तपाक से मुस्करा कर बोले, इसमें समस्या क्या
है, इसे एंजॉय कीजिए। चलिए
गोवा में होने जा रहे अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग से शुरुआत करते हैं।
आप दिल्ली से परमिशन ले लीजिए। मैं आपके साथ चलूंगा भी और आपके कमरे में ही रहूंगा
भी। विचार अदभुत था। शायद जीवन में पहली बार किसी दोस्त के साथ बारह-पंद्रह दिन इकट्ठे
गुजरने वाले थे। दफ्तर से परमिशन मिल गयी और हम दोनों 22 नवंबर 2006 की रात को गोवा
के लिए रवाना हो गये। 23 नवंबर से 3 दिसंबर
2006 तक आयोजित 37वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का हिस्सा बनने का रोमांच उस रात
मेरे रक्त में शराब की तरह उफनता रहा। ट्रेन दौड़ रही थी और मेरे मन में प्रदीप तिवारी
का कथन गूंज रहा था - भाई साहब, गोवा जाकर तो देखिए। एक लेखक जैसा जीवन जीना चाहता है,
ठीक वैसा ही जीवन गोवा
में आपका इंतजार कर रहा है। दुनिया भर की श्रेष्ठ फिल्में, सेमिनार, ढेर सारे सिनेव्यक्तित्व, हजारों बौद्धिकों का
जमावड़ा। संवाद-विमर्श-बहस। आपको यह सब पसंद आयेगा।‘ गोवा में हम दोनों एक ही होटल के एक ही कमरे
में ठहरे थे। मैं सुबह सो कर उठता तो पाता कि प्रदीप नहा-धोकर गोवा के स्थानीय अखबारों
में उलझा हुआ है। मुझे जागा देख वह मुस्कराते
हुए कहता -‘उठ गये भाई साहब।‘ फिर वह बताता कि किस अखबार की कौन सी खबरें मुझे क्रमशः पढ़नी
चाहिए। वह बताता कि किस थियेटर के कौन से स्क्रीन में कौन सी फिल्में दिन भर देखनी
हैं। किस सेमिनार में जाना चाहिए, कौन सा छोड़ सकते हैं! कुल मिला कर यह कि गोवा में प्रदीप मेरी
पाठशाला बना हुआ था। मुझे सचमुच मजा आ रहा था। ‘राष्ट्रीय सहारा‘ में रोज मेरी रिपोर्टें छप रही थीं। यह एक
नया अनुभव था। दैनिक रिपोर्टिंग का। गोवा में मुझे फिल्म समीक्षा का चस्का लग गया।
फिर हम लौट आये। ढेेर-सारी खट्टी-मीठी यादों के साथ। गोवा में अपनी मुलाकात एक बार
फिर अजीत राय और गीता श्री के साथ हुई। वहां संजय मासूम भी मिले जो हमारे बगल वाले
कमरे में ही ठहरे हुए थे। फिल्में देख कर जब रात को कमरे पर लौटते तो रास्ते के किसी
भी ठीक ठाक होटल में खाने और पीने के लिए ठहर जाते थे। इस समारोह की बड़ी खट्टी-मीठी
यादें हैं। इन यादों में प्रदीप के साथ गोवा में हुए छोटे-मोटे मतभेद भी थे। किसी फिल्म
की विचार धारा को लेकर, तकनीक को लेकर। किसी होटल के खराब खाने को लेकर, किसी स्थानीय मित्र
के व्यवहार को लेकर। गोवा प्रवास में हम एक दूसरे के सहसा बेहद करीब आ गये। तेरह-चौदह
दिन चौबीस घंटे का साथ था। निकटता बढ़नी ही थी। पता चलना ही था कि किसे क्या तकलीफ है,
कौन किस तरह का गम
लेकर इस जीवन को ढो रहा है, किसकी क्या सीमाएं और क्या तमन्नाएं हैं? किसके जीवन में कहां
एक पक्का सा गाढ़ा सा दुख चिपका हुआ है। यह सौगात की तरह, अचानक प्रगाढ़ हो कर मिला जीवन का एक छोटा
लेकिन दुर्लभ अंश था। लौटते समय हमने तय किया कि 2007 के गोवा फिल्म समारोह में हम
कौन से होटल में ठहरेंगे और दिन का खाना कहां तथा रात का भोजन कहां लेंगे। सहसा इतनी
बड़ी मुंबई में हम दो बेहतरीन दोस्तों में बदल गये थे। लौट कर मैंने दिल्ली बात की और
खुद के लिए, प्रत्येक सप्ताह छपने वाला फिल्म समीक्षा का स्तंभ, एलॉट करा लिया। इसके पीछे प्रदीप तिवारी का
ही आग्रह था। उसका कहना था -‘समीक्षा का जो काम आपने गोवा में आरंभ किया है उसे जारी रखिए।‘
और 5 जनवरी 2007 से
आज तक बिला नागा हर शुक्रवार को मैं हिंदी फिल्म देख रहा हंू और समीक्षा लिख रहा हूं।
इस सतत सक्रियता के पीछे निःसंदेह प्रदीप तिवारी ही है।
क्रमशः
प्रदीप बनारस निवास के दौरान भी काफी उत्साही और युवा उत्साह से भरपूर थे और ौ़़ इस गुण का बृहत्तर लाभ पैदा कर सकने के लिए उन्हें बहुत बधाइयाँ. प्रदीप के आग्रह का निर्वाह कर सकने के लिए आपको भी बधाई.
ReplyDelete'पहाड़ों के कलेजे से फूटे हैं आज सोते,
ReplyDeleteहम ही गफलत में रहे और रहे सोते,
तुमने तस्वीर दिखाई तो याद आयी है,
हमने भी सीने में एक नदी छुपाई है!'
अप्रतिम आलेख! --आनंद.