Monday, March 3, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 22


संक्षिप्त आत्मरचना
22
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


वापस लौटते हैं पत्रकारिता वाले स्टारडम की तरफ। इस स्टारडम की कीमत रचनात्मकता को चुकानी पड़ी। मुंबई के बीस वर्षों में कुल जमा छह कहानियां (उस रात की गंध, उस धूसर सन्नाटे में, मेरी फर्नांडिस क्या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है, दुक्खम शरणम गच्छामि, नींद के बाहर, पिता) और दो छोटे उपन्यास (गुजर क्यों नहीं जाता तथा देश निकाला) ही लिखे गये। यह अलग बात है कि इन आठों ही रचनाओं को लेखकों-पाठकों द्वारा महत्वपूर्ण माना गया। उपन्यास गुजर क्यों नहीं जातामें दिल्ली की वेदना और मुंबई के संघर्ष का ब्योरा पाठकों को बेहद पसंद आया तो लंबी कहानी नींद के बाहरको पढ़ कर अनेक वरिष्ठ लेखकों ने कहा कि इस कहानी से मेरे लेखकीय जीवन की दूसरी पारी शुरू हुई है। इस कहानी का केंद्रीय पात्र धनराज चौधरी मेरे लिए चुनौती बन गया था। उसका चरित्र गढ़ने में मुझे अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। धनराज चौधरी मैं खुद हूं लेकिन पूरा नहीं आधा-अधूरा। यह कहानी इस उत्तर आधुनिक समय में बाजार से परास्त होते मनुष्य के महारुदन का आख्यान है। इस शहर में मेरी अंतिम कहानी पिताहै जो अप्रैल 2006 के वागर्थमें रवींद्र कालिया जी ने फोकसस्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित की थी और जिसे देश भर के पाठकों के बीच भारी चर्चा मिली थी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की अंग्रेजी पत्रिका हिंदीमें पिताका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ।
पिताकहानी की कोई अलग से रचना प्रक्रिया नहीं है। मैं अपनी कहानियां अपने निजी अनुभवों और जाने-समझे यथार्थ से चुनने का आग्रही रहा हूं। इसलिए मेरी प्रत्येक कहानी मेरे जाने हुए सच के बीच सहसा आंख खोलने की स्थिति है। संभवतः इसीलिए मेरी कहानियां ज्यादा विश्वसनीय और जीवन के आसपास धड़कती नजर आती हैं। पिताभी यही है। आज मैं पिता हूं। अतीत में मैं एक बेटा था। उस अतीत में पिता का बेटों के साथ लात-घंूसों का संबंध हुआ करता था। समय बदला। पिता लोकतांत्रिक, उदार और आधुनिक हुआ। पीढ़ियों का संघर्ष नये अर्थों में बरकरार है। बेटे ज्यादा आजाद हैं, आत्म निर्भर हैं। अपने जीवन के  निर्णय खुद लेते हैं। पिता उनमें सेंध नहीं लगाते। इस कारण द्वंद्व का स्वरूप बदल गया है। मेरी कहानी पिताका बेटा और बाप दोनों आधुनिक जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं फिर भी दोनों में द्वंद्व है। लेकिन इस द्वंद्व में भावना का अतिरेक नहीं है, तर्कों की उष्मा है इसलिए द्वंद्व में सामंजस्य ढूंढने की सहज अनिवार्यता है। शायद यही इस कहानी का मूल मंत्र है कि इसमें पिता बेटे का विरोधी नहीं, उसके स्वप्नों का सहभागी है। इसके बावजूद कि इस यात्रा में वह अपनी भावनाओं के साथ एकदम अकेला है। शायद यही आज के समय के पिता-पुत्र का वास्तविक और विश्वसनीय यथार्थ है।
 सन् 2009 में मेरा उपन्यास देश निकालाप्रकाशित हुआ - भारतीय ज्ञानपीठ से। इसे भी रवींद्र कालिया जी ने ही ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका नया ज्ञानोदयमें छापा था-एक ही अंक में। इस उपन्यास ने भी मुझे बहुत यश दिया। लेकिन ठीक यही वह जगह है जहां खड़े होकर यह सवाल उठाया जा सकता है कि यह समाज हिंदी लेखकों को इतना पैसा क्यों नहीं देता कि वह भी खिलाड़ी, अभिनेता, मॉडल, संगीतकार, चित्रकार या निर्देशक की तरह जीवन यापन की वैकल्पिक व्यवस्था कर सके। प्रकाशक पुस्तक छापता है। खिलाड़ी खेलता है। एक्टर एक्टिंग करता है। गायक गाता है। संगीतकार संगीत बनाता है। डांसर नाचता है। अकेला हिंदी का लेखक है जो लिखता बाद में है, पहले नौकरी करता है। नौकरी नहीं करता, नौकरी ही करता रह जाता है। आठ घंटे की नौकरी करता है। बाकी के सोलह घंटे उस नौकरी को बचाये रखने के प्रयत्न में लहुलुहान रहता है। लेखन का इस कदर अवमूल्यन और अवमानना सिर्फ हिंदी में ही संभव है। न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि गुजराती, मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में लेखक का अपना ठाठ बाटहै। तो भी, गरीब हिंदी की लेखक बिरादरी का एक सदस्य होने के कारण और बावजूद यह लेखक ऐलान करता है -इस्पात कैसे बनता है आदमी। ऐसे, हां इसी सहज विधि से‘ - सोमदत्त की कविता का अंश। आमीन।
फिलहाल समाप्त

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1 comment:

  1. पढ़ लिया . और क्या लिखूं . भाव -विभोर हूँ .

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