Monday, March 3, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 21




संक्षिप्त आत्मरचना
21
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

दो हजार सात का गोवा फिल्म समारोह आया और बीत गया। मैं गोवा नहीं गया। जा नहीं पाया। कैसे जाता? गोवा के हर सिनेमा हॉल, हर स्टॉल, हर बारामदे में प्रदीप की यादें नश्तर बन कर पीछा नहीं करतीं? 2007 की जनवरी-फरवरी में वह दिल्ली गया - जेएनयू के किसी सेमिनार में। लौट कर बीमार पड़ गया। और अंततः मर गया। क्या ऐसे भी मरता है कोई? जिंदगी के तमाम-तमाम कामों को इस तरह अधूरा छोड़ कर - अचानक। बस इतनी सी देर के लिए उसे उतरना था मेरे जीवन में। बाकी दोस्तों का नहीं पता लेकिन मेरे एक हिस्से को तो उसने मार ही डाला है। चाहूं भी तो यह हिस्सा किलकारियां नहीं भर सकता।
प्रदीप कहता था -अपने मन के सूनेपन को लेखक के एकांत में बदल दीजिए भाई साहब।‘ ‘ऐसा थोड़े ही होता है यार।मैं कहना चाहता हूं। क्या तुम सुन रहे हो प्रदीप! ऐसा थोड़े ही होता है कि तुम जो-जो कहते जाओ वह बार-बार होता रहे। अपने मन का सूनापन मैं लेखक के एकांत में कैसे बदल सकता हूं? उस सूनेपन में तुम जो अलथी-पलथी मार कर बैठे हो, यह कहने को व्यग्र- -अब आप नहा-धोकर तैयार हो जाइए भाईसाहब। सुबह दस बजे वाला शो देखना है। ईरान की एक अदभुत फिल्म दिखाई जाने वाली है।
और यह लो मैं उठा। दो चाय पी चुका हूं। सिगरेट सुलगा ली है। प्रदीप गोवा का अखबार पढ़ रहा है। मैं बाथरूम में घुस गया हूं। सुबह दस बजे वाला शो देखना है न। यह दृश्य अक्सर मुझे उदास कर देता है, आज भी। गोवा से आने के बाद से वही सिनेमा की रिपोर्टिंग और फिल्म समीक्षा का काम जारी है जिसने तमाम साहित्यिक क्षमताओं पर दीमक की तरह कब्जा कर लिया है। 5 जनवरी 2007 से शुरू हुआ फिल्म समीक्षा का मेरा काम अब तक जारी है। अब तक कुल जमा एक हजार घंटे मैं सिनेमा हॉल में बिता चुका हूं। इन हजार घंटों में मैंने लगभग पांच सौ फिल्मों की समीक्षा कर ली है। यह गर्व करने लायक बात भले ही न हो, पर यह भी एक रचनात्मक काम तो है ही न!
क्रमशः

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