संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
नहीं जानता कि क्या सोच कर प्रभाष जी ने मुझे मुंबई के लिए चुना
था। लेकिन मुंबई जनसत्ता में मुझे राहुल देव जैसे मित्र संपादक मिले जिन्होंने काम
करने की इतनी ज्यादा आजादी दी कि मेरा पत्रकार व्यक्तित्व खिलता चला गया। इस आजादी
के मूल में अपने सभी संपादकों को प्रभाष जी द्वारा दी गई आजादी ही प्रमुख थी। जनसत्ता
में सहयोगी के रूप में मुझे संजय निरूपम दिए गए जो कुछ दिन मेरे सहायक के तौर पर ‘सबरंग‘ का कामकाज देखते रहे
और बाद में शिवसेना में चले गए। शिवसेना के कोटे से वह राज्यसभा के सदस्य बने। अपने
तेज तर्रार व्यक्तित्व और जोशीले भाषणों की बदौलत वह जल्दी ही राजनीति के आसमान के
चमकते और प्रखर सितारे बन गए। फिलहाल संजय निरूपम मुंबई से कांग्रेस के सांसद हैं।
वह आज भी मेरे दोस्त हैं और मुझसे सर कह कर ही बात करते हैं। जनसत्ता में द्विजेन्द्र
तिवारी, सतीश पेडणेकर, सुधांशु शेखर, राकेश श्रीमाल, प्रदीप सिंह, रविराज प्रणामी पत्रकार मिले जो आज भी मेरे अच्छे मित्रों में शामिल हैं। संजय
निरूपम के राजनीति में जाने के बाद ‘सबरंग‘ में मेरे साथ काम करने के लिए कवि और कला समीक्षक राकेश श्रीमाल
आए। वह ‘सबरंग‘ बंद होने तक मेरे साथ रहे। हमने दफ्तर के बाद की सैकड़ों रातें मुंबई के विभिन्न
इलाकों में भटक कर बिताईं। खास तौर पर मोहम्मद अली रोड, कोलाबा, भिंडी बाजार और लोअर परेल जहां राकेश श्रीमाल
रहते थे। इन रातों में अक्सर हमारा साथ जगदीश पुरोहित निभाते थे जो इन दिनों आदर्श
पैलेस नाम के मुंबई के सभी होटलों के मालिक हैं और खान-पान विशेषज्ञ हैं। मुंबई में
शायद वह अकेले व्यक्ति हैं जिनके पास आज भी ‘सबरंग‘ के सभी अंक सुरक्षित हैं। 1990 से 2000 तक की ‘सबरंग‘ की पत्रकारिता पर शोध करने के लिए लोगों को
अनिवार्यतः जगदीश पुरोहित के शरण में जाना पड़ेगा। जनसत्ता के दिनों की नशीली रातों
को अपने गानों से गुलजार करने का दायित्व युवा पत्रकार वेद विलास उनियाल निभाते थे
जो उन दिनों ‘संझा जनसत्ता‘ में रिपोर्टर थे और शाम के साढ़े 6 बजते ही ‘सबरंग‘ में पहुंच जाते थे। जैसे ही उन्हें लगता था
कि मैं थोड़ी फुर्सत में हूं वह तुरंत पूछ लेते थे -‘भाई साहब आज शाम किधर चलना है?‘ बाद में वेद उनियाल
से अपना रिश्ता बेहद अंतरंग और पारिवारिक हो गया। इन दिनों वह दिल्ली में पत्रकारिता
कर रहे हैं। वेद ने भी अपने ऊपर एक लंबा संस्मरण लिखा है। राकेश इन दिनों वर्धा स्थित
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय में कार्यरत हैं। जनसत्ता में रह
कर मैंने शहर के लेखकों, पत्रकारों के सहयोग से मुंबई की सबसे ज्यादा लोकप्रिय नगर पत्रिका
‘सबरंग‘ को निकालने का सुख
पाया और यह सुख दूसरों के साथ बांटा। जनसत्ता के बाहर जो तीन विशेष लेखक मेरे अंतरंग
मित्र बने उनमें आलोक भट्टाचार्य, देवमणि पाण्डे और संजय मासूम प्रमुख हैं। ये आज भी मेरे अंतरंग
को आलोकित रखते हैं। आलोक जी ने भी अपने बारे में एक प्यारा सा संस्मरण लिखा है जिसमें
वह कहते हैं - वाकई धनी हैं धीरेन्द्र अस्थाना। भावों के धनी, संवदेनाओं के धनी,
भाषा के, विचार के, अभिव्यक्ति के धनी।
कलम के धनी, संघर्षों के धनी, सफलता के धनी। गहन दुखों, सघन सुखों के धनी। यश के, लोकप्रियता के धनी। प्रतिष्ठा-मान-सम्मान-पुरस्कारों
के धनी। अच्छी जीवन-संगिनी के धनी, बढ़िया संतानों के धनी, शानदार आत्मीयों, जानदार दोस्तों के धनी। एक साधारण आदमी को
इससे ज्यादा क्या और कितना धन चाहिए? कितने असाधारण व्यक्तियों के पास ऐसा और इतना धन है भला?
कल्पनाशीलता का धन
है ही धीरेन्द्र के पास, यथार्थ के कटु अनुभवों का जो धन है, उपलब्धियों की मधुर प्राप्तियों का जो धन
है, भयानक दुखों और मोहक
सुखों से गुजरकर हासिल हुए जीवन की सच्चाई के अनमोल खजाने का जो धन है धीरेन्द्र के
पास, और उस धन के उचित तथा
रचनात्मक इस्तेमाल के विवेक का जो धन है उनके पास, वह भला कितनों को नसीब होता है?
धीरेन्द्र खुद बहुत कम दोस्त बनाते हैं। लेकिन बहुत-से लोग खुद
उनके दोस्त बन जाते हैं और धीरेन्द्र उन तमाम दोस्तियों को बनाये रखते हैं। राजेंद्र
यादव ने ‘हंस‘ के किसी अंक की भूमिका में ठीक ही लिखा है कि एक ठीक-ठाक सी शाम के लिए धीरेन्द्र
निहायत ही किसी अजनबी की तुरत-फुरत पेश की गयी दोस्ती को भी स्वीकार लेते हैं। उत्ती
देर के लिए उसे महान-वहान भी बता देते हैं। एक जमाना था, मुंबई के फ्रीलांसर हिंदी साहित्यकारों-पत्रकारों
की शामें धीरेन्द्र के ही गिर्द गुलजार होती थीं। उन शामों का पास आज भी धीरेन्द्र
रखते हैं। मुंबई के प्रेस क्लब का एक कोना आज भी उन शामों का गवाह है। मुंबई की हिंदी
साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास जब भी लिखा जायेगा, दो खास अध्यायों के बिना वह पूर्ण नहीं हो
सकेगा। पहला धर्मवीर भारती का ‘धर्मयुग‘ अध्याय, और दूसरा धीरेन्द्र अस्थाना का ‘सबरंग‘ अध्याय। मैं अगर कहूं कि ‘सबरंग‘ ने सप्ताह में महज
एक ही दिन का अपना साथ देकर दैनिक ‘जनसत्ता‘ को मुंबई में जमाया, तो गलत नहीं होगा। ‘जनसत्ता‘ का मुंबई में बंद हो
जाना दुखद रहा, लेकिन यह सच है कि अत्यल्प समय में ‘जनसत्ता‘ के मुंबई में जादुई तेजी से लोकप्रिय हो जाने के पीछे ‘सबरंग‘ का ही हाथ था,
और वह हाथ धीरेन्द्र
अस्थाना का था। धीरेन्द्र ने साप्ताहिक नगरपत्रिका के तौर पर ‘सबरंग‘ को जो जनप्रियता दिलवायी,
वह अनूठी थी। उन्होंने
तमाम स्थानीय पत्रकारों-साहित्यकारों को ‘सबरंग‘ से जोड़ा। कइयों को इंट्रोड्यूस किया, कइयों का निर्माण किया, कइयों को पुनर्जीवित
किया। साप्ताहिक साहित्यिक पत्रकारिता का उन्होंने बेमिसाल नमूना पेश किया। मुंबई के
हिंदी लिखने-पढ़ने वालों के लिए ‘सबरंग‘ एक रोमांच, नशा, प्यार और प्ररेणा की तरह उभरा। साहित्य, कला, रंगमंच, सिनेमा, समाज - धीरेन्द्र ने
सबको ‘सबरंग‘ में जोड़कर ‘सबरंग‘ नाम को वाकई सार्थक किया। धीरेन्द्र की तमाम साहित्यिक कथा-कृतियों की ही तरह ‘सबरंग‘ को भी उनकी स्थायी
कृतियों में शामिल किया जाना चाहिए।
क्रमशः
तुम्हारे बारे में आलोक भट्टाचार्य की टिप्पणी आकर्षित तो करती ही है, तुम्हारे अक्स को स्पष्टता से उभारती भी है...! महत्व का विवरण...! पटना में रहते हुए 'सबरंग' की गूँज मुझे वहाँ भी मिली थी कभी...!
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