संक्षिप्त आत्मरचना
17
सतह से उठता हुआ आदमी
धीरेन्द्र अस्थाना
अपनी रचनात्मक जन्मभूमि का एक छोटा सा आत्मकथात्मक ब्योरा मैंने
दिल्ली में सन् 1989 को लिखा था -‘पूछती है सैयदा इस जिंदगी का क्या हुआ‘ नाम से। उस जन्मभूमि
का दूसरा लेकिन संक्षिप्त पाठ सन् 2010 की आखिरी शाम यानी 31 दिसंबर को लिखने बैठा
था जो पूरा नहीं हुआ। इस अधूरी कथा को आगे बढ़वाने का पूरा श्रेय मैं अजीत राय को देता
हूं। उनका आग्रह नहीं होता तो शायद यह रचना अभी और कई वर्षों तक आकार नहीं ले पाती।
तो 16 जून 1990 की शाम मैं दिल्ली छोड़ रहा था। दिल्ली में अक्तूबर
1989 से 15 जून 1990 तक के बेरोजगारी, लाचारी और दुर्दशा के नौ असहनीय महीने बिता कर मैं स्वप्न नगरी
मुंबई के लिए रवाना हो रहा था। 16 जून की उस शाम दिल्ली से बेदखल होने की एकमात्र गवाह
केवल ललिता थी। वह बड़ा ही बेहूदा सा दृश्य था। ललिता मुझे दिलासा दे रही थी,
मैं ललिता को दिलासा
दे रहा था। पौने पांच होने को थे कि मेरी हथेलियां तर हो गयीं। हलक में कांटे उतर आए
थे और मैं इधर उधर एक अजीब सी उम्मीद से ताक रहा था कि शायद कोई आएगा। एक भरा-पूरा
और जिंदादिल समय गुजारा था मैंने दिल्ली में। मेरा मन मानने को तैयार नहीं था कि अलविदा
की इस बेला में मुझसे मिलने कोई नहीं आएगा। लेकिन पांच बज गए थे और ट्रेन सरकने लगी
थी। ललिता ट्रेन के साथ दौड़ रही थी। उसी समय एक आंसू आया जिसे आंख से उठाकर मैंने ललिता
की हथेली पर रख दिया। ‘मैं इसे मंगल सूत्र की तरह संभाल कर रखूंगी।‘ ट्रेन के साथ दौड़ती-हांफती
ललिता बोली थी। मुझे याद आया, दिल्ली के बेकारी वाले दिनों में ललिता का मंगल सूत्र बिक गया
था। ट्रेन तेज हो गयी थी। ललिता धुंधला रही थी। मैं जीवन में पहली बार निपट अकेला होने
जा रहा था। मेरा गंतव्य मुंबई थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां लेखक नष्ट हो जाता है,
कि इस मायानगरी में
प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, कि यहां अदृश्य दिशाओं से वैभव की चमकीली धूल हर क्षण लेखक के
ऊपर गिरती रहती है जो अंततः उसकी सोच और कलम को लील जाती है। लेकिन मुंबई आने के साल
भर के भीतर ही मुंबई के औचक अनुभवों को लेकर जब मैंने नयी कहानी ‘उस रात की गंध‘
लिखी तो तय हो गया
था कि मेरे भीतर का रचनाकार पराजित नहीं होगा। दिल्ली से अचानक सीधे मुंबई... जबकि
हिंदी फिल्में न मेरा पड़ाव थीं, न ही अरमान। हुआ यूं कि साप्ताहिक ‘चौथी दुनिया‘ से इस्तीफा देकर जब मैं बेदिल दिल्ली में
दर-दर भटक रहा था-बदहवास और बदहाल- उन्हीं दिनों प्रखर पत्रकार आलोक तोमर ने ‘जनसत्ता‘ के प्रधान संपादक प्रभाष
जोशी से मुलाकात करवायी थी। एकदम स्पष्ट याद है। प्रभाष जी ने बायोडेटा देख कर पूछा
था -‘संस्कृति पुरस्कार
क्या करने के लिए मिला था?‘ जवाब आलोक तोमर ने दिया था -‘धीरेन्द्र जी हिंदी के अच्छे कहानीकार हैं।
इनकी चार-पांच किताबें भी छपी हैं।‘ प्रभाष जी ने दुबारा पूछा था, ‘चंडीगढ़ जाओगे?‘ मैंने तपाक से कहा -‘हां।‘ प्रभाष जी बोले,
‘ठीक है, परसों शाम सात बजे
आओ।‘ मैं नमस्कार बोल उनके
केबिन से निकल रहा था कि पीछे से उनकी आवाज आई -‘बंबई नहीं जाओगे?‘ मैं मुड़ा और उनकी मेज के करीब गया। फिर बोला,
‘बंबई जाना ज्यादा पसंद
करूंगा। वहां मेरी ससुराल है।‘ प्रभाष जी ने हां कर दी और इस प्रकार तैंतीस वर्ष के ‘स्ट्रगलर‘ कहानीकार को दिल्ली
का दर्प चूर करने से चूक गया।
क्रमशः
जीवनानुभव ने बहुत कुछ दिया है तुम्हें...और तुमने उसे शब्दों में बहुत संजीदगी से जीवन दिया है...! समय साक्षी है और वह रहेगा...!
ReplyDelete