Saturday, March 1, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 16


संक्षिप्त आत्मरचना
16
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


      जहां तक मेरे लिखने की बात है तो उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है। जीवन में घटने वाली अनेक घटनाएं और अनुभव मेरे दिमाग में चलते रहते हैं। उन्हीं में से कोई एक घटना जब पूरी तरह पक जाती है और मुझे लगता है कि अब इस पर कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता है तो मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर  पूरी तरह उस घटना या अनुभव के साथ एकांत में चला जाता हूं। मैं कहानी या उपन्यास के नोट्स नहीं बनाता। सब कुछ दिमाग में बनता बिगड़ता रहता है। फिर जब मैं लिखने बैठता हूं तो रचना पूरी होने के बाद ही अपने एकांत से बाहर आता हूं। मैं हमेशा एक ही बैठक में रचना तैयार करता हूं। यह बैठक एक या दो दिन से लेकर दस-बारह दिन की भी हो जाती है। लिखने के दौरान मैं दैनिक दिनचर्याओं के अलावा और कोई काम नहीं करता। अखबार भी नहीं पढ़ता और टीवी भी नहीं देखता। मुझे लगता है कि चूंकि मेरी रचना प्रक्रिया काफी जटिल है इसलिए मेरे लेखन में लंबे-लंबे अंतराल आ जाते हैं। मेरे रचनाकार को कलम का एकसूत्रीय कार्यक्रम वाला समकालीन तकाजा रास नहीं आता इसलिए मेरी कहानियों का मध्यवर्गीय नायक अपनी पत्नी के साथ के अपने संबंधों को लेकर भी सुखी-दुखी होता है और अपनी नौकरी को लेकर भी तनावग्रस्त बना रहता है, वह सामाजिक दायित्यों का निर्वाह करने का हौसला भी रखता है और उनसे कतराकर पलायन भी कर जाता है। उसे मृत्युभय भी सताता है, जीवन का मोह भी आकर्षित करता है और उसे जीवन निरर्थक और निःसार भी लगता है तथा आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी उसके भीतर कद्दावर होती है। वह विद्रोह भी करता है और टुच्चे-टुच्चे समझौते भी। वह इस दुनिया से प्यार भी करता है और नफरत भी। वह क्रांति के बिंदुओं को खोजता और उन पर डटा भी रहता है और क्रांतिविरोधियों द्वारा खरीद भी लिया जाता है। वह निजी दुखों के सामने सार्वजनिक हितों की खातिर निजी सुखों-दुखों को हेय और त्याज्य भी मानता है। वह प्रेमिका की आंखों में भी डूब जाता है और दफ्तर के काम में भी। वह रोता भी है और हंसता भी। उसके छोटे-छोटे दुख हैं और छोटे-छोटे सुख भी। यानी कि वह हाड़-मांस का जीता-जागता इसी बदतर दुनिया का आदमी है और इस तरह के आदमी में जो भी कमजोरी या खूबी हो सकती है वह सब उसमें हैं। और इसी आदमी की जद्दोजहद का गवाह बनने की कोशिश हैं मेरी कहानियां। इस आदमी की कहानियां लिखना साहित्य में न सिर्फ वर्जित हो चुका है वरन् प्रतिक्रियावादी भी मान लिया गया है--ऐसी खबरें जब-तब लिखित या मौखिक रूप में मुझ तक भी पहुंचती रहती हैं और एकाध बार उनसे प्रभावित होकर मैंने दूसरी तरह की कहानियां भी बनायी हैं (बनायीहैं, क्योंकि उन खबरों से आक्रांत कहानियां रची नहीं जा सकतीं) लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है कहानियां बिगड़ गयी हैं। सो मैं बनानेके चक्कर में बिगाड़नेका कायल नहीं हूं--भले ही समकालीन तकाजे के तहत रचनाकारों की एक बड़ी फौज इस लड़ाई में शामिल क्यों न हो। मैंने शुरू में ही निवेदन किया था कि मैं पीछे छूट गया आदमी हूं।
क्रमशः

1 comment:

  1. बलात लेखन ज्यादातर बिगड़ी हुई रचनाएं ही परोसता है...! स्वतःस्फूर्त सहज लेखन की ऊर्जा धारदार होती है, यह तो 'सतह से उठता हुआ आदमी' ही साबित कर रहा है...! सत्य-कथन भाई...!

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