Friday, January 31, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 8

संक्षिप्त आत्मरचना
8
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


दिल्ली में मेरे फौरन बाद राजकुमार भी आ गया था। और उसके कुछ ही समय बाद बलराम भी। राजकुमार का दर्जा और अहमियत मेरे जीवन में निष्ठा और अपेक्षारहित मित्रता के संदर्भ में बहुत ऊंचाई पर कोहेनूर की तरह चमकते रत्न जैसी है-आज तक। और संयोग इतना सुखद रहा कि हम तीनों ही राजधानी आ बसे--कमोबेश एक जैसी स्थितियों से जूझते और उनसे पार पाते हुए। दिल्ली में हमारा काफी समय दक्षिण दिल्ली की कॉलोनी नेताजी नगर और उसके ऐन सामने बसी सरोजनी नगर में बीता। इस समय में हम तकरीबन रोज शाम आपस में मिलते, बतियाते और एक-दूसरे के सुख-दुख को गहन आत्मीयता के स्तर पर लेते-देते। इस साथ ने हमारी मित्रता को तो एक स्थायी रागात्मक आधार दिया ही, हमें राजधानी के साहित्यिक छल-छद्म, द्वेष, प्रतिस्पर्धा और गलाकाट संस्कृति में फंसने से भी बचाये रखा। इस साथ का एक अत्यंत सकारात्मक पहलू यह है कि इसने हमारे रचानत्मक कोषों को लगातार सक्रिय और सिंचित रखा और सृजनात्मक शब्द की महत्ता और सर्वोच्चता के प्रति हमें सतत आस्थावान रखा। इस दौर में हम तीनों ही कहानी, समीक्षा, साक्षात्कार और पत्रकारिता सभी स्तरों पर अनवरत सक्रिय रहे। मुजफ्फरनगर ने अगर रचना के प्रति एक कशिश-भरा स्वप्न मन में पैदा किया, तो देहरादून के जटिल, अंतर्विरोधी, असंभव और निर्मम समय और अनुभव ने रचनाकार होने की स्थितियों, अनिवार्यताओं, दबावों और यथार्थ को संभव किया। और दिल्ली ने दिया एक उन्मुक्त, असीम और खुला हुआ आकाश। दिल्ली आने से जुड़ा एक वाकया यहां रेखांकित करना जरूरी है। भीमसेन त्यागी द्वारा राजकमल में नौकरी  दिलाये जाने से पूर्व मैं सुरेश उनियाल से कई बार यह आग्रह कर चुका था कि वह किसी भी तरह मुझे भी दिल्ली बुला ले। लेकिन जब अचानक शादी हो गयी और देहरादून निराश करने लगा तो मैंने सुरेश से काफी संजीदगी से यह आग्रह फिर दुहराया। सुरेश ने कहा, ‘दिल्ली में क्या तू समझता है कि जाते ही नौकरी मिल जायेगी!उसने आगे कहा कि दिल्ली में आने के लिए नौकरी का नियुक्ति-पत्र न भी हो तो कम-से-कम कोई बुलावा तो हो।आगे इस विषय में मैंने उससे कोई बात नहीं की। और इसके कुछ ही रोज बाद मैं उसके दफ्तर में बैठा उसे बता रहा था कि मैंने राजकमल ज्वाइन कर लिया है। इस घटना का उल्लेख इसलिए कि दिल्ली आने से पहले ही दिल्ली का आतंक मेरे मन में हालांकि जड़ें जमा चुका था लेकिन चेतना में कहीं भीमसेन त्यागी का वह वाक्य भी अक्सर कौंधता रहता था जो उन्होंने मुझसे दिल्ली के लिए प्रस्थान करते वक्त कहा था। उन्होंने कहा था, ‘दिल्ली बहुत निर्मम शहर है, वहां जीना और रहना बहुत यातनाजनक और असाध्य है, लेकिन सिर्फ उनके लिए जिनमें जिजीविषा न हो। अगर लड़ने का माद्दा है तो यही दिल्ली आपको इस गहराई से अपना भी लेती है कि फिर आप वहां के होकर रह जाते हैं।और यही कारण है कि प्रतिकूल से प्रतिकूल मौकों पर भी मैंने यह कभी नहीं सोचा कि यहां से भाग लिया जाये। मैं यह सोचकर दिल्ली में उतरा था कि यहां नहीं, तो कहीं नहीं। और जब पहले मैं अकेला और बाद में ललिता को लेकर दिल्ली आया, तो हमारे पास गृहस्थी के नाम पर एक चम्मच भी नहीं थी और हमारे तन पर सिर्फ एक-एक जोड़ा कपड़ा ही था।
क्रमशः








Thursday, January 30, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 7

संक्षिप्त आत्मरचना
संक्षिप्त आत्मरचना
7
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


लेकिन दिल्ली में लड़ने, जीने, बचे रहने, बनने और संवरने का अध्याय अगर किसी ने लिखा है तो केवल ललिता ने। आज जो यह थोड़ी-बहुत रचनात्मक उपलब्धियां दिख रही हैं, इनके पीछे की संघर्षशीलता, यातना, हताशा  और अंधेरे को उसे बूंद-बूंद पिया है और कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि इस अनवरत लड़ाई और अभाव को झेलने का उसे कोई पछतावा या अफसोस है। कई बार तो यह भी हुआ कि अगर मैं टूटने लगा, तो उसने आगे बढ़कर मेरे रेशे-रेशे को अपनी हथेलियों में सहेज लिया। जिसे सही मायने में नरक कहते हैं, उसी के बीच निर्विकार और निःशब्द चलती रही। आज यह स्वीकार करने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि धूल, धूप, वर्षा, अभाव, यातना, वंचना, अपमान, प्रलोभन और हताशा के बीचोंबीच खड़े रहकर भी मैं अपनी अस्मिता, इयत्ता, स्वाभिमान और लेखकीय तकाजों को जीवित रख सका तो सिर्फ इसलिए कि ललिता जैसी आजाद ख्याल, स्वाभिमानी, स्त्री के अधिकारों के प्रति सतत चौकस, लेकिन सहृदय, सहिष्णु और सहनशील ललिता बतौर हमसफर मुझे मिली हुई थी। उसने मुझे उठाया, संवारा और युद्ध के लिए सन्नद्ध किया। स्त्री सुलभ चाहतों के पूरा न होने पर कभी-कभार वह भिन्नायी जरूर, लेकिन इस सहज दुख को उसने कभी भी मेरे रास्ते में दीवार की तरह खड़ा नहीं किया। यह एक तल्ख स्वीकार है कि अगर 1977 के अंतिम समय में मेरा-उसका परिचय न हुआ होता और 13 जून 1978 के रोज वह सहसा मेरे सामने आकर खड़ी न हो गयी होती, तो मैं अब तक या तो देहरादून के किसी शराब के ठेके पर मर-मरा चुका होता या आत्महत्या कर चुका होता। ललिता की उपस्थिति ने मेरे भीतर जीने के जज्बे को तो पैदा किया ही, मेरे कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी बने रहने की प्रक्रिया में कैटेलिस्टकी भूमिका भी अदा की। हर पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का अस्तित्व निःशब्द बजता हैइस वाक्य को अपने संदर्भ में ललिता के लिए निःसंकोच रेखांकित किया जा सकता है। दिल्ली आकर यह जो मैं बिना भविष्य की परवाह किये नौकरियों से इस्तीफा देता रहा और नौकरी की संहारक और प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने लेखक को बचाये रख सका, उसका आधा-अधूरा नहीं, पूरा श्रेय ललिता को जाता है। उसने मेरे सुखों को नहीं, दुखों को शेयर किया और वह भी मुझसे मिली वंचनाओं और अवमाननाओं के बावजूद।
क्रमशः


Wednesday, January 29, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 6

संक्षिप्त आत्मरचना
6
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


मुझे लगता है कि पहली कहानी पहले प्यार की तरह कीमती, अनूठी और रोमांचकारी होती है। लोग/हाशिए परमेरे लिए ऐसी ही है। इस कहानी के बाद तो साहित्य की पगडंडी पर मेरा सफर चल निकला जो थमता-लड़खड़ाता आज भी जारी है। साहित्य का सर्वाधिक सकारात्मक पहलू यही है कि यहां लेखक कभी रिटायर नहीं होता। लेखक कभी भूतपूर्व नहीं कहलाता। हां, अभूतपूर्व जरूर कहलाता है। 1977 में सारिकामें मेरी एक कहानी छपी थी - आयाम। कहानी पढ़कर हलद्वानी से किसी ललिता बिष्ट ने एक भावुक-सा खत मुझे लिखा। प्रेम का इतने दिनों से बाधित सोता जैसे भल-भल कर फूट उठा। दोनों तरफ से पत्र लंबे होते चले गये और अंततः 13 जून 1978 की एक सुबह मैंने पाया कि ललिता मुझे सोते से जगा रही है और सूचित कर रही है कि वह अपने पिता के घर को छोड़ आयी है और अब कभी वापस नहीं जायेगी। हमने उसी दिन विवाह किया और अगले रोज पिता से सुना कि अगर जरा भी शराफत बाकी है, तो 24 घंटे के भीतर घर छोड़ दो।
यानी संघर्ष फिर सामने था। पहले से कहीं अधिक मारक और हाहाकार-भरा। ललिता ने कहा, ‘प्याज-रोटी भी खिलायेगा, तो जीवन गुजार लूंगी। उसे सुन मैं लगभग रो ही पड़ा।
करीब पंद्रह दिन हमने राजपुर रोड स्थित भीमसेन त्यागी के मकान में गुजारे। वह सुदर्शन चोपड़ा के देहांत पर सपरिवार दिल्ली चले गये थे। काफी समय बाद लौटे, तो साथ में संदेश भी लाये कि फौरन दिल्ली जाकर राजकमल प्रकाशन ज्वाइन कर लूं। और इस तरह मैं दिल्ली आ गया--राजकमल की साढ़े तीन सौ रुपये महीने की नौकरी पर। ललिता कुछ दिन मां के साथ रही फिर अपनी मां के पास चली गयी। नवंबर 1979 में मैं उसे भी दिल्ली ले आया। दिल्ली में शुरू के काफी समय तक सुरेश उनियाल की छत, संरक्षण और भावनात्मक सुरक्षा मिली जिसने लड़ने और जीने के हौसले को जिलाये रखा।

क्रमशः

Tuesday, January 28, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 5

संक्षिप्त आत्मरचना
5
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

बहरहाल! देहरादून में डॉ. आर. के. वर्मा के साप्ताहिक अखबार 1970में 50 रुपये माहवार पर सहायक संपादकी (जिसमें मेहमानों के आने पर सड़क पार की चाय की दुकान से चाय लाना भी शामिल था) करने से लेकर वैनगार्डसाप्ताहिक में 75 रुपये महीने पर प्रूफ पढ़ने तक (जिसमें कभी-कभी मशीनमैन का सहायक बनकर छपा हुआ पेज मशीन के दो जबड़ों से बाहर निकालने का काम भी शामिल था) और घरेलू स्थितियों की असहनीयता से ऊबकर लखनऊ भाग जाने तथा वहां फुटपाथ पर रातें बिताने के बाद मित्र कौशल किशोर के कमरे में शरण लेने से लेकर वापस देहरादून लौटकर छात्र राजनीति में सक्रिय होने तक का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसने मेरे रचनात्मक संसार में काफी कुछ जोड़ा।
अप्रैल 1975 में मेरी पहल मेच्योर कहानी लोग/हाशिए परदेहरादून की सिलसिलात्रैमासिक पत्रिका में छपी। इससे पहले तक मेरे अवयस्क और आरंभिक प्रयासों के रूप में कुछ कहानियां पंजाब केसरी, दैनिक मिलाप, वैनगार्ड और अन्य पत्रिकाओं में छप रही थीं (ये सभी कहानियां मैं रद्द कर चुका हूं और ये मेरे किसी भी संग्रह में संकलित नहीं हैं)। लोग/हाशिए परछपी तो देश-भर के लेखकों-पाठकों के खतों से मेरा झोला भर गया। बलराम का खत भी उन्हीं दिनों मिला। तब नहीं जाना था कि चार अक्षरों वाला यह नाम एक दिन मेरे भावनात्मक जगत को पूरी तरह से छा लेगा। लोग/हाशिए परछपते ही मुझे बतौर साहित्यकार स्वीकार कर लिया गया।
कहानी छपी तो देश भर के लेखकों-पाठकों के खतों का अंबार लग गया। इनमें नये, पुराने प्रतिष्ठित सभी तरह के लोग थे। मैं चकित और अभिभूत दोनों था। एक ही कहानी से मुझे बतौर रचनाकार स्वीकार कर लिया जाएगा ऐसा मैंने हर्गिज नहीं सोचा था। क्योंकि वह एक कठिन जमाना था। उन दिनों साहित्यकार बनना इतना आसान नहीं होता था। कुछ नया और अनूठा कर के दिखाना होता था और पढ़ाई भी खूब करनी पड़ती थी। उन दिनों होता यह था कि कुछ दिन मैं अपने नाम आए/आ रहे खत पढ़ता और फिर अपनी कहानी फिर से पढ़ता। कुछ दिनों के इस घटनाक्रम के बाद आखिर मैंने भी मान लिया कि मैंने एक कामयाब कहानी लिख डाली है। 19 साल की उम्र  में साहित्य के प्रांगण में यह उपलब्धि मायने रखती है। तब मैं बी.ए. के प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था - देहरादून के डी.ए.वी. कॉलेज में। एक ही कहानी के जरिए मेरी दुनिया बदल गई थी। उस एक कहानी ने डी.ए.वी. कॉलेज के एक साधारण छात्र को दिल्ली, कोलकाता, कानपुर, इलाहबाद, वाराणसी, पटना, मुंबई, जोधपुर, जयपुर, लखनऊ, जबलपुर, भोपाल, जैसे शहरों के बड़े लेखकों से जोड़ दिया था। उन दिनों खत लिखने का भारी चलन था और हिंदी लेखक का भी खासा ठाठ-बाटहुआ करता था। यह काफी उथल-पुथल भरे और राजनैतिक रूप से आंदोलनकारी दिन थे। पूरे देश में जेपी आंदोलन शीर्ष पर था। सन् 1975 के मई महीने में किसी ने नहीं सोचा था कि सन् 75 के जून महीने की 26 तारीख को देश में आपात काल लगने वाला है। और वह लगा। उसकी एक अलग कहानी है। और उस पर भी अपनी एक कहानी है।

क्रमशः


Monday, January 27, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 4

संक्षिप्त आत्मरचना
4
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


मुजफ्फरनगर में मेरा आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक आधार राजकुमार गौतम था, तो देहरादून में यह दायित्व संभाला देशबंधु ने। देशबंधु एक असंभव, जटिल लेकिन मूलतः भावुकता की हद तक संवेदनशील व्यक्ति था। उससे दोस्ती बढ़ी तो मैं सर्वांग उसका हो लिया। मेरे खुद के स्वप्नों, संघर्षों, यातनाओं, कोमलताओं, बेचैनी, भावुकता, कमजोरी और अंतर्विरोधी चरित्र को देहरादून में सिर्फ उसी ने महसूस और स्वीकार किया। वह न होता तो आज मैं वैसा न होता, जैसा हूं। वह खतरनाक सीमाओं तक बीहड़ और चुप्पा था, लेकिन अपने एक ही वाक्य या भंगिमा से अपनी बेचैनी या नाराजगी या खुशी प्रकट कर देने में समर्थ था। वह बहुत कम लोगों को पसंद कर पाता था, बहुत श्रेष्ठ ही पढ़ता था और बहुत विकट रचता था। मुक्तिबोध उसका प्रियतम लेखक था और जीवन के काले, नारकीय और सड़ांध-भरे पक्ष को जानने-समझने के लिए वह उस जीवन में सारी सीमाएं तोड़ता हुआ घुसता था - मुझे भी साथ लिये। उसके साथ बिताये क्षणों का उद्घाटन-रेखांकन यहां गैरजरूरी नहीं, अनिवार्य है, क्योंकि देशबंधु को गैरहाजिर करने से वह प्रक्रिया गायब हो जायेगी जिसको जानकर और जिससे गुजरकर ही मेरे चरित्र और लेखन को समझा जा सकता है। मेरी सबसे चर्चित और सबसे पहली कहानी लोग हाशिए परका कोरिलेटिवदेशबंधु ही है। मेरी विवादास्पद कहानी जन्मभूमिउसके चरित्र के माध्यम से ही मेरी अपनी जटिलताओं को मूर्त कर सकी है। केवल तैंतीस वर्ष की उम्र में ही शराबमय हो जाने वाले मेरे तन-मन के पीछे देशबंधु की ही उपस्थिति जिम्मेदार है। केवल तेरह वर्ष के लेखन में ही जीवन को दसों उंगलियों से पकड़ पाने की बेचैनी और छटपटाहट के पीछे देशबंधु ही कौंध रहा है। वह देशबंधु ही है जिसने यह समझ, धैर्य और संवेदना संभव करायी कि नरक में ही कहीं छुपे हैं वे लोग, जिनसे स्वर्ग की रचना संभव होगी, कि मुक्ति का रास्ता भले ही अकेले न मिलता हो लेकिन रचना के शिखरों पर, दूसरों से अलग रहने का जोखिम उठाते हुए ही चढ़ा जा सकता है, कि बार-बार छले जाने के बावजूद, मानवीय और संवेदनशील बने रहना रचनाकार होने की प्राथमिक शर्त है, कि दोस्ती समीकरण का नहीं, जज्बे और परित्र समर्पण का नाम है। उसने उम्र के 35वें वर्ष में विवाह किया और विवाह के अगले रोज उसकी लाश देहरादून के डाकपत्थर की नहर में पायी गयी। वह जीवित रहता तो दूसरा मुक्तिबोध नहीं, पहला देशबंधु बनता। उसके साथ मैं रोजाना देहरादून के विभिन्न शराबघरों में रात के बारह-बारह बजे तक शराब पीता था, दो-दो बजे तक सड़कों पर घूमता-फिरता था और सैकड़ों शराबियों, गुंडों, बदमाशों, गरीबों, क्रांतिकारियों, दुकानदारों और सिनेमाहॉल के गेटकीपरों के मनोलोक, स्वप्नलोक और जीवन-स्थितियों में तैरता-उतराता और उनसे टकराता-जूझता था। वह न होता तो जीवन की तलछट अनजानी-अनपहचानी रह जाती। तिब्बतियों की बस्ती में उपलब्ध छंग, देहरादून के गांवों में बनने वाली कच्ची शराब, ठेकों पर मिलने वाला ठर्रा, चायघरों में बिकने वाली हरी और नशीली चाय और बारों में मिलने वाले रम और व्हिस्की के स्मॉल और लार्ज पैग, उसी की बदौलत जीवन के अनुभवों में शरीक हुए। उत्तर प्रदेश और हिमाचल की सीमारेखा पर खड़े होकर रात के दस बजे हिमाचल की हरीशराब नीटपी लेने का जोखिम और रोमांच महसूस किया उसी के साथ।

क्रमशः

Saturday, January 25, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 3

संक्षिप्त आत्मरचना
3
सतह से उठता हुआ आदमी 

धीरेन्द्र अस्थाना 

यहां जिस रात थाली में मुर्गा होता था, उसके अगले दो रोज तक सिर्फ चने भी हो सकते थे। यहां फिल्म देखने के लिए जिस दिन पांच-दस रुपये मिल सकते थे, उसके अगले कई दिनों तक घर से कॉलेज की दूरी के लिए बस का टिकट खरीदने की चवन्नी अपने एक पान वाले दोस्त ब्रह्मप्रकाश से मांगनी पड़ सकती थी। यहीं बाप और दादा में मल्लयुद्ध होते देखा, यहीं मां को मार खाते देखा और यहीं पिता के विरूद्ध एक बेचैनी, एक प्रतिवाद, एक प्रतिकार और एक अवज्ञा को मन में आकार लेते भी पाया। पिता के विरूद्ध पहला प्रतिवाद मैंने यह किया कि चार मीनार की सिगरेट फूंकते हुए पूरे प्रेमनगर (देहरादून की एक बस्ती) के चक्कर काट आया ताकि शाम तक उनके पास यह खबर पहुंच जाये। खबर उन तक पहुंची लेकिन वे उसे पचा गये तो मैं एक रात, पहली बार, शराब पी आया और घर में आकर उल्टी कर दी। (वह पहली उल्टी थी। तब से आज तक जीवन में शराब कितनी ही पी ली हो, पर उल्टी कभी नहीं की।) इसका भी कोई असर नहीं हुआ, तो मैंने रातें अक्सर घर के बाहर बितानी शुरू कर दीं।
देहरादून में मेरा परिचय सुखवीर विश्वकर्मा, विपिन बिहारी सुमन, सुरेश उनियाल, सुभाष पंत, अवधेश कुमार, नवीन नौटियाल, सतीश चांद, वेदिका वेद आदि आदि के साथ ही देशबंधु से भी हुआ। देशबंधु मेरे जीवन की घटना ही नहीं, कल्पनातीत अनुभव भी साबित हुआ। उन्हीं दिनों मैं देहरादून से निकलने वाले ‘वेनगार्ड‘ अखबार में 75 रुपए प्रति माह पर प्रूफ रीडर बन गया। प्रूफरीडरी करते हुए ‘ज्ञानलोक लाइब्रेरी‘ का सदस्य बना। जहां मैंने मुक्तिबोध, प्रेमचंद, निराला, शमशेर, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, राहुल सांकृत्यायन, कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि को विधिवत पढ़ा। यहां रहते हुए कथा साहित्य की ओर मैं ज्यादा आकृष्ट हुआ। 

क्रमशः

Friday, January 24, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 2

संक्षिप्त आत्मरचना
2
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

जब मैं वयस्क नहीं था, शहर (मुजफ्फरनगर) की हर सुंदर लड़की से प्रेम करने को व्याकुल रहता था (यह अलग बात है कि शहर में सुंदर लड़कियां थी ही नहीं) और शहर के बारे में अपने से तिगुनी उम्र वाले एक परिचित दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक का यह शेर मैं हर वक्त गुनगुनाता रहता था-न सूरत, न सीरत, न इल्मो हुनर/अजब चूतिया शहर है मुजफ्फरनगरसारिकानामक पत्रिका को एक आतंक की तरह देखता-छूता था और अपने सबसे पुराने दोस्त राजकुमार गौतम के साथ लेखक बनने के ख्वाब देखा करता था, नरक ने उससे पहले ही मेरे जीवन में प्रवेश कर लिया था। राजकुमार का जीवन बदहाल होने के बावजूद आकस्मिकताओं से भरा हुआ नहीं था, लेकिन मेरे यहां हर कदम पर हादसे साथ चलते थे, वह भी अनपेक्षित। इन अनपेक्षित और आकस्मिक हादसों ने मुझे दुविधाग्रस्त, आशंकाग्रस्त, भयभीत, अराजक, शंकालु, भावुक, संघर्षशील और भगोड़ा एक साथ बनाया। क्षण में जीने का एक सनकभरा व्यवहार भी - बिना क्षणवादी, अस्तित्तववादी साहित्य पढ़े इसीलिए मेरी जीवन-शैली में चुपचाप प्रविष्ट हुआ।
डैडी पहाड़ पर थे - जोशीमठ में, हम मुजफ्फरनगर के एक ऐसे तंग और सीलन-भरे कमरे में, जिसके बाहर नाली में कीचड़ और मल-मूत्र बहता रहता था और हमें हर समय दुखी और पीड़ित रखता था। उस कमरे में हम सोते भी थे, रसोई भी बनाते थे, नहाते भी थे, कपड़े भी धोते थे और पढ़ते भी थे। मैं परिवार का सबसे बड़ा बेटा होने का अभिशाप लिए डैडी द्वारा भेजे पैसों से घर का खर्च भी चलाता था, अपनी पढ़ाई भी करता था, अपने छोटे भाइयों को अपनी पीठ पर लादकर बड़ा करते-करते मैदान में खेलते अपने हमउम्र साथियों को क्रिकेट भी खेलते देखा करता था और उनके तथा मां के लिए खाना भी पकाया करता था। खाना यानी सबके लिए दो-दो परांठे और एक-एक चाय, या खिचड़ी या गुड़ और चना। मां स्थायी रूप से बीमार रहती थी, अपाहिज थी। जब मैं उसके गर्भ में था, वह छत से कूदकर आत्महत्या की कोशिश में अपना पांव कूल्हे पर से तुड़ा बैठी थी। बाप ने बड़े प्रेम से आठ बच्चे पैदा किये। एक रहा नहीं और एक बाद में चलकर पागल हो गया और अभी तक अपने जीवन को अभिशाप की तरह जी रहा है। मुजफ्फरनगर में हमने शायद तीन या चार वर्ष दुःस्वप्न की तरह गुजारे-अपनी बुआ के संपन्न और अपने चाचा के अपेक्षाकृत सुखी जीवन के बरक्स, लेकिन अजनबियों की तरह। इसने रिश्तों के प्रति मेरे जीवन को संदेहों से भर दिया। किसी लड़की से प्रेम करने और उसके साथ अपने सुख-दुख (सुख तो थे ही नहीं) शेयरकरने का भाव भी किसी जुनून की तरह इन्हीं दिनों मेरे मन में कद्दावर हुआ। इन्हीं दिनों लेखक बनने की आकांक्षा भी पैदा हुई। इन्हीं दिनों क्रिकेट को लेकर एक गहरी नफरत ने मेरे मन में जन्म लिया। आज भी अगर क्रिकेट से मुझे एजर्ली है तो संभवतः इसी कारण कि जब मैं उसे खेलना चाहता था, नहीं खेल पाया। सतत अभाव और वंचना ने संपन्न जीवन के प्रति एक प्रतिकार से भरा उन्हीं दिनों और उन्हीं दिनों मन में यह भावना विकसित हुई कि लेखक बनकर मैं हर चूतिये से ऊपर उठ सकता हूं। राजकुमार ने अंतिम आशीर्वादऔर मैंने आराधनातथा राखी का प्रतिदानजैसी फिल्मी, बचकानी और लिजलिजी भावुकता से भरी कहानियां उन्हीं दिनों लिखीं और खुद को लेखक होने के गर्व में गर्क किया। तब मैं पंद्रह-सोलह का और राजकुमार 19-20 का हुआ करता था। उन्हीं दिनों किसी काम से शामली (मुजफ्फरनगर का एक कस्बा) जाना हुआ और वहां मैं अपनी सगी बुआ की बेहद खूबसूरत लड़की को दिल दे बैठा। उसके होंठों, उसके चलने, उसके सोने और उसके होने पर मैंने बीसियों कविताएं लिखीं। बाद में उसका विवाह हो गया और मैं अपना टूटा हुआ दिल लेकर शायरी पढ़ने में गर्क हो गया। तब अपनी बुआ की लड़की से प्रेम करते रहकर, मैं इस अहसास में भी डूबा रहता था कि अगर हम विवाह कर लें तो इस पारंपरिक और दकियानूसी समाज में क्रांति हो जायेगी। अमृता प्रीतम के रोमानी संसार से छूटकर प्रेमचंद की तपती हुई जमीन पर कदम रखा इन्हीं दिनों। आज भी मैं मानता हूं कि गुलशन नंदा और प्रेम वाजपेयी टाइप के उपन्यासों और सृजनात्मक साहित्य के बीच अमृता प्रीतम एक सीढ़ी का काम करती हैं। फिर मैं देहरादून आ गया - कुछ अधिक यथार्थवादी दृष्टि और अध्ययन की अपेक्षाकृत अधिक संपन्न पूंजी के साथ। इस बार डैडी भी साथ थे। मुझसे तुरंत बाद वाला भाई वीरेंद्र यहीं पागल हुआ। यहां रहने के लिए तो सरकारी क्वार्टर था, लेकिन डैडी के फक्कड़पने के कारण रहने और जीने की स्थितियां अभी भी विपन्न और दुर्घटनाओं-भरी थीं। शराब, गोश्त और जुआ डैडी को हमारे दादा से विरासत में मिला था। आज यह सोचकर गर्वित होता रहता हूं कि जुआ तो दूर, ताश का एक भी खेल मैं नहीं जानता।
क्रमशः


Thursday, January 23, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 1

संक्षिप्त आत्मरचना
1
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

मैंने अपनी इस आत्मकथात्मक रचना का शीर्षक हिंदी के बहुत बड़े और अप्रतिम कवि-कथाकार गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कहानी से उधार लिया है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि मुक्तिबोध मेरे सर्वप्रिय लेखक हैं। दूसरा यह कि मैं स्वयं भी तो सतह से उठता हुआ आदमी ही रहा हूं। मुझसे कहा गया है कि मैं उस नरक को उद्घाटित करूं जहां से मेरी रचनाओं ने जन्म लिया है। नरकशब्द आग्रह करने वाले का नहीं है लेकिन मेरे संदर्भ में यही वह शब्द है जिससे गुजरकर ही रचने की मेरी कोशिशें ठीक-ठीक समझी जा सकती हैं। एक ऐसे समय में, जब लोग उजला-उजलाही प्रदर्शित करने की होड़ में मुब्तिला हों, नरक का उद्घाटन ईमानदार भले ही हो, पर वह अकेले पड़ जाने की खतरनाक शुरूआत भी है।
मैंने क्या जिया? एक ऐसे आदमी के लिए, जो घटनाओं और स्थितियों को न तो डायरी में दर्ज कर पाता हो और न ही अपनी स्मृति में सिलसिलेवार संजोकर रख पाता हो, ठीक-ठीक यह ब्योरा दे पाना कठिन है कि उसने रचने और जीने के पिछले तमाम वर्षों में क्या-क्या जिया, क्या सोचा, क्या चाहा, कैसे रहा और कब, किस क्षण, किस तरह रिएक्टकिया। एक स्थूल-सा बिंब यह बनता है कि एक ठोस, अंधकारमय, यातनादायी, दुश्ंिचताओं और दुविधाओं से भरा हुआ खौफनाक नरक मेरे साथ-साथ चला। मुझे लगता है कि रचने वालों की जन्मभूमि ऐसी ही हुआ करती है--बुरी, बदहाल, बदशक्ल, अक्षम, असुरक्षित और बेहद मजबूर।

क्रमश: