Monday, March 3, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 22


संक्षिप्त आत्मरचना
22
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


वापस लौटते हैं पत्रकारिता वाले स्टारडम की तरफ। इस स्टारडम की कीमत रचनात्मकता को चुकानी पड़ी। मुंबई के बीस वर्षों में कुल जमा छह कहानियां (उस रात की गंध, उस धूसर सन्नाटे में, मेरी फर्नांडिस क्या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है, दुक्खम शरणम गच्छामि, नींद के बाहर, पिता) और दो छोटे उपन्यास (गुजर क्यों नहीं जाता तथा देश निकाला) ही लिखे गये। यह अलग बात है कि इन आठों ही रचनाओं को लेखकों-पाठकों द्वारा महत्वपूर्ण माना गया। उपन्यास गुजर क्यों नहीं जातामें दिल्ली की वेदना और मुंबई के संघर्ष का ब्योरा पाठकों को बेहद पसंद आया तो लंबी कहानी नींद के बाहरको पढ़ कर अनेक वरिष्ठ लेखकों ने कहा कि इस कहानी से मेरे लेखकीय जीवन की दूसरी पारी शुरू हुई है। इस कहानी का केंद्रीय पात्र धनराज चौधरी मेरे लिए चुनौती बन गया था। उसका चरित्र गढ़ने में मुझे अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। धनराज चौधरी मैं खुद हूं लेकिन पूरा नहीं आधा-अधूरा। यह कहानी इस उत्तर आधुनिक समय में बाजार से परास्त होते मनुष्य के महारुदन का आख्यान है। इस शहर में मेरी अंतिम कहानी पिताहै जो अप्रैल 2006 के वागर्थमें रवींद्र कालिया जी ने फोकसस्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित की थी और जिसे देश भर के पाठकों के बीच भारी चर्चा मिली थी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की अंग्रेजी पत्रिका हिंदीमें पिताका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ।
पिताकहानी की कोई अलग से रचना प्रक्रिया नहीं है। मैं अपनी कहानियां अपने निजी अनुभवों और जाने-समझे यथार्थ से चुनने का आग्रही रहा हूं। इसलिए मेरी प्रत्येक कहानी मेरे जाने हुए सच के बीच सहसा आंख खोलने की स्थिति है। संभवतः इसीलिए मेरी कहानियां ज्यादा विश्वसनीय और जीवन के आसपास धड़कती नजर आती हैं। पिताभी यही है। आज मैं पिता हूं। अतीत में मैं एक बेटा था। उस अतीत में पिता का बेटों के साथ लात-घंूसों का संबंध हुआ करता था। समय बदला। पिता लोकतांत्रिक, उदार और आधुनिक हुआ। पीढ़ियों का संघर्ष नये अर्थों में बरकरार है। बेटे ज्यादा आजाद हैं, आत्म निर्भर हैं। अपने जीवन के  निर्णय खुद लेते हैं। पिता उनमें सेंध नहीं लगाते। इस कारण द्वंद्व का स्वरूप बदल गया है। मेरी कहानी पिताका बेटा और बाप दोनों आधुनिक जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं फिर भी दोनों में द्वंद्व है। लेकिन इस द्वंद्व में भावना का अतिरेक नहीं है, तर्कों की उष्मा है इसलिए द्वंद्व में सामंजस्य ढूंढने की सहज अनिवार्यता है। शायद यही इस कहानी का मूल मंत्र है कि इसमें पिता बेटे का विरोधी नहीं, उसके स्वप्नों का सहभागी है। इसके बावजूद कि इस यात्रा में वह अपनी भावनाओं के साथ एकदम अकेला है। शायद यही आज के समय के पिता-पुत्र का वास्तविक और विश्वसनीय यथार्थ है।
 सन् 2009 में मेरा उपन्यास देश निकालाप्रकाशित हुआ - भारतीय ज्ञानपीठ से। इसे भी रवींद्र कालिया जी ने ही ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका नया ज्ञानोदयमें छापा था-एक ही अंक में। इस उपन्यास ने भी मुझे बहुत यश दिया। लेकिन ठीक यही वह जगह है जहां खड़े होकर यह सवाल उठाया जा सकता है कि यह समाज हिंदी लेखकों को इतना पैसा क्यों नहीं देता कि वह भी खिलाड़ी, अभिनेता, मॉडल, संगीतकार, चित्रकार या निर्देशक की तरह जीवन यापन की वैकल्पिक व्यवस्था कर सके। प्रकाशक पुस्तक छापता है। खिलाड़ी खेलता है। एक्टर एक्टिंग करता है। गायक गाता है। संगीतकार संगीत बनाता है। डांसर नाचता है। अकेला हिंदी का लेखक है जो लिखता बाद में है, पहले नौकरी करता है। नौकरी नहीं करता, नौकरी ही करता रह जाता है। आठ घंटे की नौकरी करता है। बाकी के सोलह घंटे उस नौकरी को बचाये रखने के प्रयत्न में लहुलुहान रहता है। लेखन का इस कदर अवमूल्यन और अवमानना सिर्फ हिंदी में ही संभव है। न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि गुजराती, मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में लेखक का अपना ठाठ बाटहै। तो भी, गरीब हिंदी की लेखक बिरादरी का एक सदस्य होने के कारण और बावजूद यह लेखक ऐलान करता है -इस्पात कैसे बनता है आदमी। ऐसे, हां इसी सहज विधि से‘ - सोमदत्त की कविता का अंश। आमीन।
फिलहाल समाप्त

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सतह से उठता हुआ आदमी - 21




संक्षिप्त आत्मरचना
21
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

दो हजार सात का गोवा फिल्म समारोह आया और बीत गया। मैं गोवा नहीं गया। जा नहीं पाया। कैसे जाता? गोवा के हर सिनेमा हॉल, हर स्टॉल, हर बारामदे में प्रदीप की यादें नश्तर बन कर पीछा नहीं करतीं? 2007 की जनवरी-फरवरी में वह दिल्ली गया - जेएनयू के किसी सेमिनार में। लौट कर बीमार पड़ गया। और अंततः मर गया। क्या ऐसे भी मरता है कोई? जिंदगी के तमाम-तमाम कामों को इस तरह अधूरा छोड़ कर - अचानक। बस इतनी सी देर के लिए उसे उतरना था मेरे जीवन में। बाकी दोस्तों का नहीं पता लेकिन मेरे एक हिस्से को तो उसने मार ही डाला है। चाहूं भी तो यह हिस्सा किलकारियां नहीं भर सकता।
प्रदीप कहता था -अपने मन के सूनेपन को लेखक के एकांत में बदल दीजिए भाई साहब।‘ ‘ऐसा थोड़े ही होता है यार।मैं कहना चाहता हूं। क्या तुम सुन रहे हो प्रदीप! ऐसा थोड़े ही होता है कि तुम जो-जो कहते जाओ वह बार-बार होता रहे। अपने मन का सूनापन मैं लेखक के एकांत में कैसे बदल सकता हूं? उस सूनेपन में तुम जो अलथी-पलथी मार कर बैठे हो, यह कहने को व्यग्र- -अब आप नहा-धोकर तैयार हो जाइए भाईसाहब। सुबह दस बजे वाला शो देखना है। ईरान की एक अदभुत फिल्म दिखाई जाने वाली है।
और यह लो मैं उठा। दो चाय पी चुका हूं। सिगरेट सुलगा ली है। प्रदीप गोवा का अखबार पढ़ रहा है। मैं बाथरूम में घुस गया हूं। सुबह दस बजे वाला शो देखना है न। यह दृश्य अक्सर मुझे उदास कर देता है, आज भी। गोवा से आने के बाद से वही सिनेमा की रिपोर्टिंग और फिल्म समीक्षा का काम जारी है जिसने तमाम साहित्यिक क्षमताओं पर दीमक की तरह कब्जा कर लिया है। 5 जनवरी 2007 से शुरू हुआ फिल्म समीक्षा का मेरा काम अब तक जारी है। अब तक कुल जमा एक हजार घंटे मैं सिनेमा हॉल में बिता चुका हूं। इन हजार घंटों में मैंने लगभग पांच सौ फिल्मों की समीक्षा कर ली है। यह गर्व करने लायक बात भले ही न हो, पर यह भी एक रचनात्मक काम तो है ही न!
क्रमशः

Saturday, March 1, 2014

सतह से उठता हुआ आदमी - 20


संक्षिप्त आत्मरचना
20
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


10 मई 2003 को सहारा समयका पहला अंक भव्य स्तर पर लांच हुआ और उसके बाद आने वाले समय में उसकी ऐतिहासिक टीम ने देश में झंडे गाड़ दिए। कौन नहीं था सहारा समयमें? डॉ. नामवर सिंह, कुमार आनंद, मंगलेश डबराल, धीरेन्द्र अस्थाना, अरिहन जैन, परशुराम शर्मा, मनोहर नायक, चंद्रभूषण, संजय कुंदन, विमल झा, कृपाशंकर चौबे, मनोज चतुर्वेदी। लगभग चौथाई जनसत्ता ही बटोर लाये थे गोविंद जी सहारा समयमें। अखबार सुपरफास्ट गति से दौड़ना ही था। क्या क्या और कैसे कैसे तो फीचर नहीं लिखे उन दिनों बंदे ने। लगभग तीन किताबों लायक फीचर तो लिखे ही होंगे। अफसोस। कुल दो ढाई वर्ष का जीवन जीकर सहारा समयबंद हो गया। फिर से लौटे स्वर्ण काल को फिर कोई कोबरा डस गया। दो ही विकल्प सामने थे। या तो मैं डेली पेपर के लिए सिनेमा की रिपोर्टिंग करूं या इस्तीफा दे दूं। सन 2005 के उस उत्तरार्द्ध में अपने जीवन का उत्तरार्द्ध भी यथार्थ बन सामने था। उम्र का पचासवां वर्ष शुरू होने को था। कौन नौकरी देता? तय हुआ कि मन को मार कर रिपोर्टिंग में लुढ़क जाना है।
और यही वह समय तथा क्षण है जब पचास साल के इस स्ट्रगलर के जीवन में प्रदीप तिवारी नाम के एक कवि-फिल्म पत्रकार दोस्त की एंट्री होती है। जब वह बनारस में थे तब मैंने दैनिक जागरण की साहित्यिक पत्रिका पुनर्नवामें उनकी कविताएं प्रकाशित की थीं। वह बसने-जीने के लिए मुंबई आ पहुंचे थे। वह दफ्तर में मुझसे मिलने आये तो मैंने उनके सामने समस्या रखी कि फिल्मी पत्रकारिता करनी है। वह तपाक से मुस्करा कर बोले, इसमें समस्या क्या है, इसे एंजॉय कीजिए। चलिए गोवा में होने जा रहे अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग से शुरुआत करते हैं। आप दिल्ली से परमिशन ले लीजिए। मैं आपके साथ चलूंगा भी और आपके कमरे में ही रहूंगा भी। विचार अदभुत था। शायद जीवन में पहली बार किसी दोस्त के साथ बारह-पंद्रह दिन इकट्ठे गुजरने वाले थे। दफ्तर से परमिशन मिल गयी और हम दोनों 22 नवंबर 2006 की रात को गोवा के लिए रवाना हो गये। 23 नवंबर  से 3 दिसंबर 2006 तक आयोजित 37वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का हिस्सा बनने का रोमांच उस रात मेरे रक्त में शराब की तरह उफनता रहा। ट्रेन दौड़ रही थी और मेरे मन में प्रदीप तिवारी का कथन गूंज रहा था - भाई साहब, गोवा जाकर तो देखिए। एक लेखक जैसा जीवन जीना चाहता है, ठीक वैसा ही जीवन गोवा में आपका इंतजार कर रहा है। दुनिया भर की श्रेष्ठ फिल्में, सेमिनार, ढेर सारे सिनेव्यक्तित्व, हजारों बौद्धिकों का जमावड़ा। संवाद-विमर्श-बहस। आपको यह सब पसंद आयेगा।गोवा में हम दोनों एक ही होटल के एक ही कमरे में ठहरे थे। मैं सुबह सो कर उठता तो पाता कि प्रदीप नहा-धोकर गोवा के स्थानीय अखबारों में उलझा हुआ है।  मुझे जागा देख वह मुस्कराते हुए कहता -उठ गये भाई साहब।फिर वह बताता कि किस अखबार की कौन सी खबरें मुझे क्रमशः पढ़नी चाहिए। वह बताता कि किस थियेटर के कौन से स्क्रीन में कौन सी फिल्में दिन भर देखनी हैं। किस सेमिनार में जाना चाहिए, कौन सा छोड़ सकते हैं! कुल मिला कर यह कि गोवा में प्रदीप मेरी पाठशाला बना हुआ था। मुझे सचमुच मजा आ रहा था। राष्ट्रीय सहारामें रोज मेरी रिपोर्टें छप रही थीं। यह एक नया अनुभव था। दैनिक रिपोर्टिंग का। गोवा में मुझे फिल्म समीक्षा का चस्का लग गया। फिर हम लौट आये। ढेेर-सारी खट्टी-मीठी यादों के साथ। गोवा में अपनी मुलाकात एक बार फिर अजीत राय और गीता श्री के साथ हुई। वहां संजय मासूम भी मिले जो हमारे बगल वाले कमरे में ही ठहरे हुए थे। फिल्में देख कर जब रात को कमरे पर लौटते तो रास्ते के किसी भी ठीक ठाक होटल में खाने और पीने के लिए ठहर जाते थे। इस समारोह की बड़ी खट्टी-मीठी यादें हैं। इन यादों में प्रदीप के साथ गोवा में हुए छोटे-मोटे मतभेद भी थे। किसी फिल्म की विचार धारा को लेकर, तकनीक को लेकर। किसी होटल के खराब खाने को लेकर, किसी स्थानीय मित्र के व्यवहार को लेकर। गोवा प्रवास में हम एक दूसरे के सहसा बेहद करीब आ गये। तेरह-चौदह दिन चौबीस घंटे का साथ था। निकटता बढ़नी ही थी। पता चलना ही था कि किसे क्या तकलीफ है, कौन किस तरह का गम लेकर इस जीवन को ढो रहा है, किसकी क्या सीमाएं और क्या तमन्नाएं हैं? किसके जीवन में कहां एक पक्का सा गाढ़ा सा दुख चिपका हुआ है। यह सौगात की तरह, अचानक प्रगाढ़ हो कर मिला जीवन का एक छोटा लेकिन दुर्लभ अंश था। लौटते समय हमने तय किया कि 2007 के गोवा फिल्म समारोह में हम कौन से होटल में ठहरेंगे और दिन का खाना कहां तथा रात का भोजन कहां लेंगे। सहसा इतनी बड़ी मुंबई में हम दो बेहतरीन दोस्तों में बदल गये थे। लौट कर मैंने दिल्ली बात की और खुद के लिए, प्रत्येक सप्ताह छपने वाला फिल्म समीक्षा का स्तंभ, एलॉट करा लिया। इसके पीछे प्रदीप तिवारी का ही आग्रह था। उसका कहना था -समीक्षा का जो काम आपने गोवा में आरंभ किया है उसे जारी रखिए।और 5 जनवरी 2007 से आज तक बिला नागा हर शुक्रवार को मैं हिंदी फिल्म देख रहा हंू और समीक्षा लिख रहा हूं। इस सतत सक्रियता के पीछे निःसंदेह प्रदीप तिवारी ही है।
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 19


संक्षिप्त आत्मरचना
19
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

मुंबई जनसत्ता में कटे दस वर्ष (1990 से 2000) मेरी पत्रकारिता का सबसे बेहतरीन काल है। मुंबई में न सिर्फ मैं अपने पैरों पर जमकर खड़ा हुआ, खुद का निवास स्थान बनाया, बच्चोें को पढ़ा-लिखा कर उनके पैरों पर खड़ा किया। और जाहिर है कि यह सब कुछ इसलिए हासिल हुआ क्योंकि प्रभाष जोशी जैसे प्रखर और दूरंदेशी पत्रकार संपादक की कृपा से मैं फिर से रोजगार प्राप्त हो गया था। प्रभाष जी का मेरे जीवन पर यह अविस्मरणीय अहसान है। उनके न रहने पर मैं खुद को निजी रूप से अनाथ जैसा महसूस करता हूं। उन्हें शत-शत नमन।
यहां सबरंगके बारे में अपने देहरादून के लेखक दोस्त सूरज प्रकाश, जो इन दिनों मुंबई में ही हैं, के संस्मरण का एक अंश यहां रेखांकित करना भी मौजूं होगा। वह लिखते हैं -इस 32 पेजी पत्रिका सबरंगने मुंबई में इतिहास रचा। सात-आठ हजार से शुरू करते हुए इसकी प्रतियों की संख्या साठ हजार तक पहुंची। लगभग दस बरस में सबरंगके कई विशेषांक निकले। दो हजार से अधिक कविताएं, सात सौ से अधिक कहानियां, कवर स्टोरीज, कॉलम और इतर सामग्री छपी। सबरंगके लिए तब हर घर में रविवार को छीना झपटी होती थी। धीरेन्द्र ने सबरंगको स्टार बना दिया और सबरंगने बदले में धीरेन्द्र अस्थाना, फीचर एडीटर को स्टार बनाए रखा।
यहां से हम वापस दुर्दिनों में लौटते हैं। शायद लेखक और बुरे दिनों का चोली दामन का साथ है। फरवरी 1990 में मुंबई जनसत्ता के सभी पत्रकारों को कंप्यूटर सिखाया जा रहा था ताकि जनसत्ता की टीम भी आधुनिक कील कांटों से लैस हो सके। सभी लोगों में भारी उत्साह था। सलेक्ट ऑल, कंट्रोल, कॉपी, पेस्ट, रिफ्रेश, कैप्स लॉक, पेज अप, पेज डाउन, डीलिट -एक नयी दुनिया खुल जा सिमसिम की तरह खुल रही थी। कि तभी एक दोपहर, दफ्तर पहुंचने पर पता चला कि जनसत्ता का मुंबई संस्करण बंद कर दिया गया है। उन्हीं दिनों मुंबई के सुदूर उपनगर मीरा रोड में अपना खुद का फ्लैट लोन पर खरीदा गया था। दोनों बच्चे पढ़ रहे थे। और संघर्ष फिर सामने खड़ा था। दुख हंस रहा था, यह कहते हुए, ‘सुख तुझसे होड़ है मेरी।और इसके बाद 20 अप्रैल 2000 को लगभग पच्चीस पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया। जनसत्ता में दस वर्ष पूरे होने से ठीक दो महीने पहले। फिर पूरे दस महीने लगातार बेरोजगारी रही। मार्च 2001 में वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह के प्रयत्नों और सांसद-पत्रकार राजीव शुक्ल की पहल से दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर की नौकरी मिली और बंदा फिर दिल्ली। कुछ समय जागरण की राजनैतिक पत्रिका उदयदेखी, बाद में महिला पत्रिका सखीसंभाल ली। अनेक दोस्तों ने पत्र लिख कर पूछा, दिल्ली के दुर्दांत दिनों पर गुजर क्यों नहीं जाताजैसा बेबाक उपन्यास लिखने के बावजूद वापस दिल्ली में रहना कैसे संभव हो रहा है? लेकिन वह दिल्ली में रहना कहां था? पूरे दो साल गर्दन झुका कर सिर्फ काम ही तो किया। इतवार के दिन भी। महीने में एक बार नोएडा से प्रेस क्लब जाने का नियम बनाया था। उस दिन जो लेखक मिल गया वही अपना सांस्कृतिक उत्सव हो जाता था। इस बार के दिल्ली प्रवास में कई नए लेखक-पत्रकार जीवन से जुड़े। इनमें अजीत राय, गीता श्री, अनंत विजय, इष्टदेव प्रमुख रहे। हालांकि अजीत राय बहुत वर्ष पहले हमारे मुंबई के चारकोप वाले किराए के घर में आ चुके थे, लेकिन गहरी घनिष्ठता उनके साथ इस बार के दिल्ली प्रवास में हुई। मैं जब-जब नोएडा के सेक्टर-12 के अपने किराए के घर में दही वाला चिकन बनाता था तो उस रात अजीत राय अनिवार्य रूप से मेरे मेहमान होते थे। उनसे मैं अक्सर कहता था कि मुझे दिल्ली में इस बार मजा नहीं आ रहा है। जब भी मौका मिलेगा मैं मुंबई के लिए निकल लूंगा। उधर मुंबई में अपना घर भी खंडहर हो रहा था जबकि दिल्ली में सादतपुर वाला घर बिक चुका था। तभी राष्ट्रीय सहारा के संपादक गोविंद दीक्षित का बुलावा आया। मिलने पर उन्होंने सहारा ज्वॉइन करने का ऑफर दिया और वह भी मुंबई के ब्यूरो चीफ के बतौर। दरअसल वह सहारा समयनाम से एक 48 पन्नों का शानदार रंगीन फुल साइज अखबार लेकर आ रहे थे। चुनौती छोटी नहीं थी। 48 में से कुल 12 पन्ने मुंबई से उपलब्ध कराने थे, वह भी बिना नियमित स्टाफ के। पर मुंबई तो अपनी कर्मस्थली थी। 1 अप्रैल 2003 को सहारा ज्वाईन किया और 4 मई को पूरा परिवार फिर से मुंबई लौट आया। पूरे दो साल का जला वतन बिता कर।
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 18


संक्षिप्त आत्मरचना
18
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

नहीं जानता कि क्या सोच कर प्रभाष जी ने मुझे मुंबई के लिए चुना था। लेकिन मुंबई जनसत्ता में मुझे राहुल देव जैसे मित्र संपादक मिले जिन्होंने काम करने की इतनी ज्यादा आजादी दी कि मेरा पत्रकार व्यक्तित्व खिलता चला गया। इस आजादी के मूल में अपने सभी संपादकों को प्रभाष जी द्वारा दी गई आजादी ही प्रमुख थी। जनसत्ता में सहयोगी के रूप में मुझे संजय निरूपम दिए गए जो कुछ दिन मेरे सहायक के तौर पर सबरंगका कामकाज देखते रहे और बाद में शिवसेना में चले गए। शिवसेना के कोटे से वह राज्यसभा के सदस्य बने। अपने तेज तर्रार व्यक्तित्व और जोशीले भाषणों की बदौलत वह जल्दी ही राजनीति के आसमान के चमकते और प्रखर सितारे बन गए। फिलहाल संजय निरूपम मुंबई से कांग्रेस के सांसद हैं। वह आज भी मेरे दोस्त हैं और मुझसे सर कह कर ही बात करते हैं। जनसत्ता में द्विजेन्द्र तिवारी, सतीश पेडणेकर, सुधांशु शेखर, राकेश श्रीमाल, प्रदीप सिंह, रविराज प्रणामी पत्रकार मिले जो आज भी मेरे अच्छे मित्रों में शामिल हैं। संजय निरूपम के राजनीति में जाने के बाद सबरंगमें मेरे साथ काम करने के लिए कवि और कला समीक्षक राकेश श्रीमाल आए। वह सबरंगबंद होने तक मेरे साथ रहे। हमने दफ्तर के बाद की सैकड़ों रातें मुंबई के विभिन्न इलाकों में भटक कर बिताईं। खास तौर पर मोहम्मद अली रोड, कोलाबा, भिंडी बाजार और लोअर परेल जहां राकेश श्रीमाल रहते थे। इन रातों में अक्सर हमारा साथ जगदीश पुरोहित निभाते थे जो इन दिनों आदर्श पैलेस नाम के मुंबई के सभी होटलों के मालिक हैं और खान-पान विशेषज्ञ हैं। मुंबई में शायद वह अकेले व्यक्ति हैं जिनके पास आज भी सबरंगके सभी अंक सुरक्षित हैं।  1990 से 2000 तक की सबरंगकी पत्रकारिता पर शोध करने के लिए लोगों को अनिवार्यतः जगदीश पुरोहित के शरण में जाना पड़ेगा। जनसत्ता के दिनों की नशीली रातों को अपने गानों से गुलजार करने का दायित्व युवा पत्रकार वेद विलास उनियाल निभाते थे जो उन दिनों संझा जनसत्तामें रिपोर्टर थे और शाम के साढ़े 6 बजते ही सबरंगमें पहुंच जाते थे। जैसे ही उन्हें लगता था कि मैं थोड़ी फुर्सत में हूं वह तुरंत पूछ लेते थे -भाई साहब आज शाम किधर चलना है?‘ बाद में वेद उनियाल से अपना रिश्ता बेहद अंतरंग और पारिवारिक हो गया। इन दिनों वह दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। वेद ने भी अपने ऊपर एक लंबा संस्मरण लिखा है। राकेश इन दिनों वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय में कार्यरत हैं। जनसत्ता में रह कर मैंने शहर के लेखकों, पत्रकारों के सहयोग से मुंबई की सबसे ज्यादा लोकप्रिय नगर पत्रिका सबरंगको निकालने का सुख पाया और यह सुख दूसरों के साथ बांटा। जनसत्ता के बाहर जो तीन विशेष लेखक मेरे अंतरंग मित्र बने उनमें आलोक भट्टाचार्य, देवमणि पाण्डे और संजय मासूम प्रमुख हैं। ये आज भी मेरे अंतरंग को आलोकित रखते हैं। आलोक जी ने भी अपने बारे में एक प्यारा सा संस्मरण लिखा है जिसमें वह कहते हैं - वाकई धनी हैं धीरेन्द्र अस्थाना। भावों के धनी, संवदेनाओं के धनी, भाषा के, विचार के, अभिव्यक्ति के धनी। कलम के धनी, संघर्षों के धनी, सफलता के धनी। गहन दुखों, सघन सुखों के धनी। यश के, लोकप्रियता के धनी। प्रतिष्ठा-मान-सम्मान-पुरस्कारों के धनी। अच्छी जीवन-संगिनी के धनी, बढ़िया संतानों के धनी, शानदार आत्मीयों, जानदार दोस्तों के धनी। एक साधारण आदमी को इससे ज्यादा क्या और कितना धन चाहिए? कितने असाधारण व्यक्तियों के पास ऐसा और इतना धन है भला? कल्पनाशीलता का धन है ही धीरेन्द्र के पास, यथार्थ के कटु अनुभवों का जो धन है, उपलब्धियों की मधुर प्राप्तियों का जो धन है, भयानक दुखों और मोहक सुखों से गुजरकर हासिल हुए जीवन की सच्चाई के अनमोल खजाने का जो धन है धीरेन्द्र के पास, और उस धन के उचित तथा रचनात्मक इस्तेमाल के विवेक का जो धन है उनके पास, वह भला कितनों को नसीब होता है?
धीरेन्द्र खुद बहुत कम दोस्त बनाते हैं। लेकिन बहुत-से लोग खुद उनके दोस्त बन जाते हैं और धीरेन्द्र उन तमाम दोस्तियों को बनाये रखते हैं। राजेंद्र यादव ने हंसके किसी अंक की भूमिका में ठीक ही लिखा है कि एक ठीक-ठाक सी शाम के लिए धीरेन्द्र निहायत ही किसी अजनबी की तुरत-फुरत पेश की गयी दोस्ती को भी स्वीकार लेते हैं। उत्ती देर के लिए उसे महान-वहान भी बता देते हैं। एक जमाना था, मुंबई के फ्रीलांसर हिंदी साहित्यकारों-पत्रकारों की शामें धीरेन्द्र के ही गिर्द गुलजार होती थीं। उन शामों का पास आज भी धीरेन्द्र रखते हैं। मुंबई के प्रेस क्लब का एक कोना आज भी उन शामों का गवाह है। मुंबई की हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास जब भी लिखा जायेगा, दो खास अध्यायों के बिना वह पूर्ण नहीं हो सकेगा। पहला धर्मवीर भारती का धर्मयुगअध्याय, और दूसरा धीरेन्द्र अस्थाना का सबरंगअध्याय। मैं अगर कहूं कि सबरंगने सप्ताह में महज एक ही दिन का अपना साथ देकर दैनिक जनसत्ताको मुंबई में जमाया, तो गलत नहीं होगा। जनसत्ताका मुंबई में बंद हो जाना दुखद रहा, लेकिन यह सच है कि अत्यल्प समय में जनसत्ताके मुंबई में जादुई तेजी से लोकप्रिय हो जाने के पीछे सबरंगका ही हाथ था, और वह हाथ धीरेन्द्र अस्थाना का था। धीरेन्द्र ने साप्ताहिक नगरपत्रिका के तौर पर सबरंगको जो जनप्रियता दिलवायी, वह अनूठी थी। उन्होंने तमाम स्थानीय पत्रकारों-साहित्यकारों को सबरंगसे जोड़ा। कइयों को इंट्रोड्यूस किया, कइयों का निर्माण किया, कइयों को पुनर्जीवित किया। साप्ताहिक साहित्यिक पत्रकारिता का उन्होंने बेमिसाल नमूना पेश किया। मुंबई के हिंदी लिखने-पढ़ने वालों के लिए सबरंगएक रोमांच, नशा, प्यार और प्ररेणा की तरह उभरा। साहित्य, कला, रंगमंच, सिनेमा, समाज - धीरेन्द्र ने सबको सबरंगमें जोड़कर सबरंगनाम को वाकई सार्थक किया। धीरेन्द्र की तमाम साहित्यिक कथा-कृतियों की ही तरह सबरंगको भी उनकी स्थायी कृतियों में शामिल किया जाना चाहिए।
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 17


संक्षिप्त आत्मरचना
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सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना

अपनी रचनात्मक जन्मभूमि का एक छोटा सा आत्मकथात्मक ब्योरा मैंने दिल्ली में सन् 1989 को लिखा था -पूछती है सैयदा इस जिंदगी का क्या हुआनाम से। उस जन्मभूमि का दूसरा लेकिन संक्षिप्त पाठ सन् 2010 की आखिरी शाम यानी 31 दिसंबर को लिखने बैठा था जो पूरा नहीं हुआ। इस अधूरी कथा को आगे बढ़वाने का पूरा श्रेय मैं अजीत राय को देता हूं। उनका आग्रह नहीं होता तो शायद यह रचना अभी और कई वर्षों तक आकार नहीं ले पाती।
तो 16 जून 1990 की शाम मैं दिल्ली छोड़ रहा था। दिल्ली में अक्तूबर 1989 से 15 जून 1990 तक के बेरोजगारी, लाचारी और दुर्दशा के नौ असहनीय महीने बिता कर मैं स्वप्न नगरी मुंबई के लिए रवाना हो रहा था। 16 जून की उस शाम दिल्ली से बेदखल होने की एकमात्र गवाह केवल ललिता थी। वह बड़ा ही बेहूदा सा दृश्य था। ललिता मुझे दिलासा दे रही थी, मैं ललिता को दिलासा दे रहा था। पौने पांच होने को थे कि मेरी हथेलियां तर हो गयीं। हलक में कांटे उतर आए थे और मैं इधर उधर एक अजीब सी उम्मीद से ताक रहा था कि शायद कोई आएगा। एक भरा-पूरा और जिंदादिल समय गुजारा था मैंने दिल्ली में। मेरा मन मानने को तैयार नहीं था कि अलविदा की इस बेला में मुझसे मिलने कोई नहीं आएगा। लेकिन पांच बज गए थे और ट्रेन सरकने लगी थी। ललिता ट्रेन के साथ दौड़ रही थी। उसी समय एक आंसू आया जिसे आंख से उठाकर मैंने ललिता की हथेली पर रख दिया। मैं इसे मंगल सूत्र की तरह संभाल कर रखूंगी।ट्रेन के साथ दौड़ती-हांफती ललिता बोली थी। मुझे याद आया, दिल्ली के बेकारी वाले दिनों में ललिता का मंगल सूत्र बिक गया था। ट्रेन तेज हो गयी थी। ललिता धुंधला रही थी। मैं जीवन में पहली बार निपट अकेला होने जा रहा था। मेरा गंतव्य मुंबई थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां लेखक नष्ट हो जाता है, कि इस मायानगरी में प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, कि यहां अदृश्य दिशाओं से वैभव की चमकीली धूल हर क्षण लेखक के ऊपर गिरती रहती है जो अंततः उसकी सोच और कलम को लील जाती है। लेकिन मुंबई आने के साल भर के भीतर ही मुंबई के औचक अनुभवों को लेकर जब मैंने नयी कहानी उस रात की गंधलिखी तो तय हो गया था कि मेरे भीतर का रचनाकार पराजित नहीं होगा। दिल्ली से अचानक सीधे मुंबई... जबकि हिंदी फिल्में न मेरा पड़ाव थीं, न ही अरमान। हुआ यूं कि साप्ताहिक चौथी दुनियासे इस्तीफा देकर जब मैं बेदिल दिल्ली में दर-दर भटक रहा था-बदहवास और बदहाल- उन्हीं दिनों प्रखर पत्रकार आलोक तोमर ने जनसत्ताके प्रधान संपादक प्रभाष जोशी से मुलाकात करवायी थी। एकदम स्पष्ट याद है। प्रभाष जी ने बायोडेटा देख कर पूछा था -संस्कृति पुरस्कार क्या करने के लिए मिला था?‘ जवाब आलोक तोमर ने दिया था -धीरेन्द्र जी हिंदी के अच्छे कहानीकार हैं। इनकी चार-पांच किताबें भी छपी हैं।प्रभाष जी ने दुबारा पूछा था, ‘चंडीगढ़ जाओगे?‘ मैंने तपाक से कहा -हां।प्रभाष जी बोले, ‘ठीक है, परसों शाम सात बजे आओ।मैं नमस्कार बोल उनके केबिन से निकल रहा था कि पीछे से उनकी आवाज आई -बंबई नहीं जाओगे?‘ मैं मुड़ा और उनकी मेज के करीब गया। फिर बोला, ‘बंबई जाना ज्यादा पसंद करूंगा। वहां मेरी ससुराल है।प्रभाष जी ने हां कर दी और इस प्रकार तैंतीस वर्ष के स्ट्रगलरकहानीकार को दिल्ली का दर्प चूर करने से चूक गया।
क्रमशः

सतह से उठता हुआ आदमी - 16


संक्षिप्त आत्मरचना
16
सतह से उठता हुआ आदमी

धीरेन्द्र अस्थाना


      जहां तक मेरे लिखने की बात है तो उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है। जीवन में घटने वाली अनेक घटनाएं और अनुभव मेरे दिमाग में चलते रहते हैं। उन्हीं में से कोई एक घटना जब पूरी तरह पक जाती है और मुझे लगता है कि अब इस पर कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता है तो मैं दफ्तर से छुट्टी लेकर  पूरी तरह उस घटना या अनुभव के साथ एकांत में चला जाता हूं। मैं कहानी या उपन्यास के नोट्स नहीं बनाता। सब कुछ दिमाग में बनता बिगड़ता रहता है। फिर जब मैं लिखने बैठता हूं तो रचना पूरी होने के बाद ही अपने एकांत से बाहर आता हूं। मैं हमेशा एक ही बैठक में रचना तैयार करता हूं। यह बैठक एक या दो दिन से लेकर दस-बारह दिन की भी हो जाती है। लिखने के दौरान मैं दैनिक दिनचर्याओं के अलावा और कोई काम नहीं करता। अखबार भी नहीं पढ़ता और टीवी भी नहीं देखता। मुझे लगता है कि चूंकि मेरी रचना प्रक्रिया काफी जटिल है इसलिए मेरे लेखन में लंबे-लंबे अंतराल आ जाते हैं। मेरे रचनाकार को कलम का एकसूत्रीय कार्यक्रम वाला समकालीन तकाजा रास नहीं आता इसलिए मेरी कहानियों का मध्यवर्गीय नायक अपनी पत्नी के साथ के अपने संबंधों को लेकर भी सुखी-दुखी होता है और अपनी नौकरी को लेकर भी तनावग्रस्त बना रहता है, वह सामाजिक दायित्यों का निर्वाह करने का हौसला भी रखता है और उनसे कतराकर पलायन भी कर जाता है। उसे मृत्युभय भी सताता है, जीवन का मोह भी आकर्षित करता है और उसे जीवन निरर्थक और निःसार भी लगता है तथा आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी उसके भीतर कद्दावर होती है। वह विद्रोह भी करता है और टुच्चे-टुच्चे समझौते भी। वह इस दुनिया से प्यार भी करता है और नफरत भी। वह क्रांति के बिंदुओं को खोजता और उन पर डटा भी रहता है और क्रांतिविरोधियों द्वारा खरीद भी लिया जाता है। वह निजी दुखों के सामने सार्वजनिक हितों की खातिर निजी सुखों-दुखों को हेय और त्याज्य भी मानता है। वह प्रेमिका की आंखों में भी डूब जाता है और दफ्तर के काम में भी। वह रोता भी है और हंसता भी। उसके छोटे-छोटे दुख हैं और छोटे-छोटे सुख भी। यानी कि वह हाड़-मांस का जीता-जागता इसी बदतर दुनिया का आदमी है और इस तरह के आदमी में जो भी कमजोरी या खूबी हो सकती है वह सब उसमें हैं। और इसी आदमी की जद्दोजहद का गवाह बनने की कोशिश हैं मेरी कहानियां। इस आदमी की कहानियां लिखना साहित्य में न सिर्फ वर्जित हो चुका है वरन् प्रतिक्रियावादी भी मान लिया गया है--ऐसी खबरें जब-तब लिखित या मौखिक रूप में मुझ तक भी पहुंचती रहती हैं और एकाध बार उनसे प्रभावित होकर मैंने दूसरी तरह की कहानियां भी बनायी हैं (बनायीहैं, क्योंकि उन खबरों से आक्रांत कहानियां रची नहीं जा सकतीं) लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है कहानियां बिगड़ गयी हैं। सो मैं बनानेके चक्कर में बिगाड़नेका कायल नहीं हूं--भले ही समकालीन तकाजे के तहत रचनाकारों की एक बड़ी फौज इस लड़ाई में शामिल क्यों न हो। मैंने शुरू में ही निवेदन किया था कि मैं पीछे छूट गया आदमी हूं।
क्रमशः